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________________ १२० ध्यानशतकम्, नामक चतुर्थ शुक्लध्यान अभीष्ट रहा है । आगे दोनों ग्रन्थों में जो शुक्लध्यान के पृथक्त्ववितर्क सविचार आदि चार भेदों का निरूपण किया गया है वह बहुत कुछ समान है । ध्यानशतक में शुक्लध्यानविषयक क्रम का निरूपण करते हुए एक उदाहरण यह दिया गया है कि जिस प्रकार सब शरीर में व्याप्त विष को मंत्र के द्वारा क्रम से हीन करते हुए डंकस्थान में रोक दिया जाता है और तत्पश्चात् उसे प्रधानतर मंत्र के द्वारा उस डंकस्थान से भी हटा दिया जाता है उसी प्रकार तीनों लोकों के विषय करनेवाले मन को ध्यान के बल से क्रमशः हीन करते हुए परमाणु में रोका जाता है और तत्पश्चात् जिनरूपी वैद्य उसे उस परमाणु से भी हटाकर उस मन से सर्वथा रहित हो जाते है । यही उदाहरण प्रकारान्तर से आदिपुराण में भी दिया गया है । यथा-वहां कहा गया है कि जिस प्रकार सब शरीर में व्याप्त विष को मंत्र के सामर्थ्य से खींचा जाता है उसी प्रकार समस्त कर्मरूपी विष को ध्यान के सामर्थ्य से पृथक् किया जाता है । उक्त दोनों ग्रन्थों में एक अन्य उदाहरण मेघों का भी दिया गया है । यथाजह वा घणसंघाया खणेण पवणाहया विलिज्जंति । झाण-पवणावहूया तह कम्म-घणा विलिज्जति ।। ध्या. श. १०२ तद्वद् वाताहताः सद्यो विलीयन्ते घनाघनाः । तद्वत् कर्म-घना यान्ति लयं ध्यानानिलाहताः ।। आ. पु. २१-२१३ इस प्रकार दोनों ग्रन्थों की वर्णनशैली तथा शब्द, अर्थ और भाव की समानता को देखते हुए इसमें सन्देह नहीं रहता कि आदिपुराण के अन्तर्गत वह ध्यान का वर्णन ध्यानशतक से अत्यधिक प्रभावित है । यहां इस शंका के लिए कोई स्थान नहीं है कि सम्भव है आदिपुराण का ही प्रभाव ध्यानशतक पर रहा हो, कारण इसका यह है कि ध्यानशतक पर हरिभद्र सूरि के द्वारा एक टीका लिखी गई है, अतः ध्यानशतक की रचना निश्चित ही हरिभद्र के पूर्व में हो चुकी है और हरिभद्र सूरि निश्चित ही आ. जिनसेन के पूर्ववर्ती हैं । इससे यही समझना चाहिए कि आदिपुराण के रचयिता जिनसेन स्वामी के समक्ष प्रकृत ध्यानशतक रहा है और उन्होंने उसका उपयोग उसमें किये गये ध्यान के वर्णन में किया है । ध्यानशतक व ज्ञानार्णव आचार्य शुभचन्द्र (सम्भवतः वि. की ११वीं शती) विरचित ज्ञानार्णव यह एक ध्यानविषयक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसमें मुद्रित प्रति (परम श्रुतप्रभावक मण्डल, बम्बई) के अनुसार ४२ प्रकरण हैं । पद्यसंख्या लगभग २२३० है । संस्कृत भाषामत ये पद्य अनुष्टुभ्, आर्या, इन्द्रवज्रा, इन्द्रवंशा, उपजाति, उपेन्द्रवज्रा, पृथ्वी, मन्दाक्रान्ता, मालिनी, वसन्ततिलका, वंशस्थ, शार्दूलविक्रीडित, शालिनी, शिखरिणी और स्रग्धरा १. आ. यु. २१-१६७, २. ध्या. श. ८९, ३. ध्या. श. ७१-७२, ४. आ. पु. २१-२१४ । _Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002559
Book TitleDhyanashatakam Part 1
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages302
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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