SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११६ ध्यानशतकम्, tandarmerstarstaramatarekarararekarakariteraturerakarskaraturerstarasataram परिकर्म का यह विवेचन यद्यपि सामान्य ध्यान को लक्ष्य में रखकर किया गया है, फिर भी इस प्रसंग में कुछ ऐसा भी कथन किया गया है जो यथास्थान ध्यानशतकगत धर्मध्यान के प्रकरण में उपलब्ध होता है और जिससे वह विशेष प्रभावित भी है । उदाहरणार्थ उक्त दोनों ग्रन्थों के इन पद्यों का मिलान किया जा सकता है । निच्चं चिय जुवइ-पसू-नपुंसग-कुसीलवज्जियं जइणो । ठाणं वियणं भणियं विसेसओ झाणकालंमि ।। ध्या. श. ३५ स्त्री-पशु-क्लीब-संसक्तरहितं विजनं मुनेः । सर्वदैवोचितं स्थानं ध्यानकाले विशेषतः ।। आ. पु. २१-७७ जच्चिय देहावत्था जिया ण झाणोवरोहिणी होइ । झाइज्जा तदवत्थो ठिओ निसण्णो निवण्णो वा ।। ध्या. श. ३९ देहावस्था पुनर्यैव न स्याद् ध्यानोपरोधिनी। तदवस्थो मुनिायेत् स्थित्वाऽऽसित्वाऽधिशय्य वा ।। आ. पु. २१-७५ xx x सव्वासु वट्टमाणा मुणओ जं देस-काल-चेट्ठासु । वरकेवलाइलाभं पत्ता बहसो समियपावा।। ध्या. श. ४० यद्देस-काल-चेष्टासु सर्वास्वेव समाहिताः । सिद्धाः सिद्धयन्ति सेत्स्यन्ति नात्र तन्नियमोऽस्त्यतः ।। आ. पु. २१-८२ आदि पुराणगत उक्त तीनों श्लोकों में ध्यानशतक की गाथाओं का भाव तो पूर्णतया निहित है ही, साथ ही उनके प्राकृत शब्दों के संस्कृत रूपान्तर भी ज्यों के त्यों लिए गए हैं । इस प्रकार परिकर्म की प्ररूपणा करके तत्पश्चात् वहां ध्याता, ध्येय, ध्यान और उसके फल के कहने की प्रतिज्ञा की गई है और तदनुसार आगे उनकी क्रमशः प्ररूपणा भी की गई है । ___ ध्येय की प्ररूपणा के बाद वहां क्रम प्राप्त ध्यान का कथन करते हुए यह कहा गया है कि एक वस्तु विषयक प्रशस्त प्रणिधान का नाम ध्यान है । वह धर्म्य और शुक्ल के भेद से दो प्रकार का है । यह प्रशस्त प्रणिधान रूप ध्यान मुक्ति का कारण है । यह कथन यद्यपि आदिपुराण में सामान्य ध्यान के आश्रय से किया गया है, फिर भी जैसा कि पाठक ऊपर देख चुके हैं; उसमें जो देश, काल एवं आसन आदि की प्ररूपणा की गई है वह ध्यानशतक के अन्तर्गत धर्मध्यान के प्रकरण से काफी प्रभावित है । १. ध्याता २१, ८५-१०३; ध्येय १०४-३१, ध्यान १३२, फल धर्मध्यान १६२-६३ और शुक्लध्यान १८६. २. आ. पु. २१-१३२, Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002559
Book TitleDhyanashatakam Part 1
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages302
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy