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श्रीधर्मविधिप्रकरणम् जाणतो वि हु केसी, तेसि सरूवं न किंपि जंपेई । नियमाउलेण ठविए , ते पिक्खइ तमिव भत्तीए ॥३८०॥ अह ते उदायणमुणिं, आगयमवगम्म संकिया सव्वे । चिंतंति एस अम्हे, गसियं पि हु उग्गिलावसई ॥३८१॥ इय ते अप्पभएणं, पावा वुग्गाहयंति केसिनिवं । जंपंति माउलो तुह, पत्तो तवचरणनिव्विन्नो ॥३८२॥ ता गिन्हिस्सइ रज्जं, एसो मा वीससेसु तमिमस्स । केसी जंपइ गिन्हउ, रज्जमिमं माउलस्सेव ।।३८३।। सचिवा भणंति दिन्नं, रज्जं पुन्नेण न उण अन्नेण । अन्ह मुत्तूण सुयं, को जामेयस्स तं देइ ॥३८४॥ इय धुत्तेहिं तेहिं, स भामिओ माउलम्मि गयनेहो । पुच्छइ किं कायव्वं, भणंति ते दावसु विसं ति ॥३८५।। भुंजइ दहिं ति नाउं, से तं सविसं दवावए केसी । पसुपालीहत्थेणं, संसारे किन्न संभवइ ॥३८६।। सचिवा पुण अन्नेसु वि, भिक्खाभवणेसु तस्स महिरिसिणो । सविसं दावंति दहि, धिद्धी लोभस्स माहप्पं ॥३८७॥ अह मुणिविहरियदहियाउ, देवया तं विसं हरिय भणइ । मा इह गिन्हिज्ज दहि, मुणिवर ! जं लहसि विसमीसं ॥३८८॥ अह तस्स चत्तदहिणो, वाही वड्डइ तओ स गिन्हेइ । अवहरइ विसं देवी, एवं जा तिन्निवाराओ ॥३८९॥ अन्नदिणे देवीए, कह वि पमत्ताइ सो दहिं सविसं । भुंजइ तो संजाओ, जरुव्व देहमि संजाओ ॥३९०॥ अह विसभावेण मुणी, पज्जतं अप्पणो मुणिऊण । कयआराहणकिच्चो, गिन्हेई अणसणं विहिणा ॥३९१॥ देवीहयविसविरिओ, मासेण उदायणो खवियकम्मो । पावियकेवलनाणो, निव्वाणपुरम्मि संपत्तो ॥३९२॥
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