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________________ 10 प्रथमं धर्मपरीक्षाद्वारम् एयाउ मरणभीओ, विसं व मं कोइ भुंजइ न अन्नो । ता जीवंतो एसो , सल्लइ सल्लं व मह हियए" ॥१८६।। इय चिंतिऊण तीए , सह आहारेण तस्स नरवईणो । अइतिव्वविसं दिन्नं, पोसहउववासपारणए ॥१८७॥ तो तक्खणेण रन्नो, उच्छलिया वेयणा विसप्पभवा । नायं च कह वि सूरिय-कंताए विलसियं एयं ॥१८८॥ "अह चिंतइ नरनाहो, नराण गिहिवासपायवस्सेह । महिलाजणपरिबंधो, मूलं परमत्थओ होइ ॥१८९॥ ताण पुण इत्थियाणं, परिणामो एस जं अकज्जे वि । सब्भावपरम्म वि माणुसम्मि, एवं पयर्टेति ॥१९०॥ अहवा जं दहइ सिही, मारेइ विसं भुयंगमो डसइ । तं ताण सरूवं चिय, अकज्जवित्तीण नारीण" ॥१९१॥ इत्तु च्चिय धीरेहिं, इमाउ चत्ताउ चरणरेणु व्व । परिवज्जिया य सम्मं, सकज्जसिद्धि व्व जिणदिक्खा ॥१९२।। ता संपइ नियकज्जं, अहं पि साहेमि अज्ज वि जियंतो । इय निच्छिऊण रन्ना, सचिवो सद्दाविओ तुरियं ॥१९३॥ अह सचिवो संपत्तो, नाउं विसवइयरं जहावत्थं । मंतोसहे कुणतो, पएसिरन्ना इमं भणिओ ॥१९४॥ मुत्तूण सचिव ! अन्नोसहाइँ, धम्मोसहं कुणसु मज्झ । आहवसु सिग्घमित्थ य, सुहगुरुणो परमविज्जु व्व ॥१९५॥ सचिवो भणइ सविणयं, सामिय ! संपइ न संति इह गुरुणो । आह निवो गुरुकिरियं, तुमं पि में कारसु गुरु व्व ॥१९६।। "अह गीयत्थो मंती, जिणबिंबं पूइऊण दंसेइ । वंदाविऊण देवे, गरिहावइ दुक्कडाई च ॥१९७॥ आलोआवइ सम्म, दुच्चरियं सिद्धसक्खियं सव्वं । कारेइ य जीवाणं, दिट्ठादिट्ठाणं खामणयं ॥१९८॥ 15 20 25 Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002558
Book TitleDharmvidhiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprabhsuri
PublisherBhadrankar Prakashan
Publication Year2009
Total Pages426
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Ritual, & Vidhi
File Size16 MB
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