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प्रथमं धर्मपरीक्षाद्वारम्
ता लोहभारतुल्लं, अन्नाणत्तं चइत्तु नरनाह ! । सयलसुहकारणाई, गिन्हसु नाणाइरयणाई ॥१६०॥ इय संलत्तो गुरुणा, नत्थियवाइत्तकुग्गहं मुत्तुं । संवेगसुद्धहियओ, राया विन्नत्तियं कुणइ ॥१६१॥ "भयवं ! इत्तियकालं, विवेगविगलेण तत्तरहिएण । पसुणा इव किं पि मए, किच्चाकिच्चं न विन्नायं ॥१६२॥ ता काऊण पसायं, पहियं पि व सुकयसंबलविमुक्कं । भीमभवरन्नपडियं, मं दावसु निव्वुइपहम्मि" ॥१६३॥ "तो भणइ गुरू नरवर ! जीवो सव्वो वि अहिलसइ सुक्खं । तं कह विणा सुधम्मं, पडु व्व सुत्तं विणा न भवे ॥१६४॥ जुत्ताजुत्तपरिक्खा-विरहे मिच्छत्तमोहिओ जीवो । धत्तूरिउ व्व कणयं, सव्वत्थ वि मन्नए धम्मं ॥१६५॥ तम्हा निव ! मुक्खकए, धम्मपरिक्खा सया वि कायव्वा । सा पुण जिणिंदधम्म, मुत्तूण हवेइ नन्नत्थ ॥१६६॥ जिणधम्मे पुण मूलं, अरिहं देवो सुसाहुणो गुरुणो । धम्मो जिणपन्नत्तो, इय सम्मत्तं तुमं मुणसु ॥१६७॥ अह पाणिवहप्पमुहाइं, तस्स अक्खेइ बारस वयाइं ।। सिरिकेसिगुरुं तत्तो, भणइ निवो सुद्धहियएण ॥१६८॥ अरिहं देवो गुरुणो, साहू तत्तं जिणेहिँ पन्नत्तं । पडिवन्नं तह चत्तं, मिच्छत्तं सव्वहा वि मए ॥१६९॥ अह अइयारवियारं, सम्मं नाऊण तत्थ नरनाहो । पाणिवहप्पमुहाई, गिन्हेई बारस वयाइं" ॥१७०॥ तो भणइ निवो चित्तं, अमच्च ! सम्मं परिक्खिऊण मए । गहिओ एसो धम्मो, ता तुम वि गिन्हसु इयाणि ॥१७१।। सचिवो जंपइ सामिय !, सावत्थीए गएण तुह कज्जे । एएसि चिय पासे, गहिओ धम्मो वियारेउं ॥१७२॥
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