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श्रीधर्मविधिप्रकरणम्
चोरेण तत्थ मिठो, फरिसिज्जतो वि जग्गए नेव । लग्गेइ वज्जलेवु व्व, संतसुत्तस्स जं निद्दा ॥ ९४०॥ ईसि पि करप्फुसिया, चोरेण पिया निवस्स पडिबुद्धा । फरिसेण वि अणुरत्ता, तम्मि तओ भणइ को सि तुमं ॥ ९४९ ॥ ती सणियं भणिओ, सणियं चोरो वि तं इमं भइ । आरक्खगाण नट्ठो, इहागओ ( पत्तो इह ) जीवियत्थीहं ॥९४२॥ सा अणुरागवसेणं, असई चोरं पयंपए भद्द ! | रक्खामि तुमं नूणं, जइ मं वंछसि तुमं सुभग ! ॥ ९४३ ॥ चोरो भाइ सुवन्नं, संपन्नं मह इमं तह सुगंधि | जं होसि मज्झ भज्जा, देसि तुमं जीवियव्वं च ॥ ९४४ ॥ नवरं पुच्छामि तुमं, केण पयारेण देसि मह जीयं । इय अक्खिऊण भद्दे !, आसाससु मं भयाउलियं ॥९४५॥ सा भइ सुभग ! ना (गा) मा - रक्खगपुरिसेसु आगएसु तुमं । पभणिस्सामि पइमहं, एवं हवउ त्ति सो आह ॥ ९४६ ॥ सूरुदए सुहडेहिं, तत्थ पविट्ठेहि सत्थपाणीहिं । रे रे को सो चोरो, इय तिन्नि वि ताइ भणियाई ॥ ९४७ ॥ अह ते गामेयनरे, मुत्ता माय व्व जंपए धुत्ता । उद्दिसिय चोरपुरिसं, जं एसो मह पिययमुत्ति ॥ ९४८॥ पुणरवि कयंजली सा, भणेइ भो बंधवा ! पओसम्म । गामंतरजंताई, अम्हे इत्थेव वसियाई ॥ ९४९ ॥ तो गामीणा मिलिउं, अन्नुन्नं मंतिऊण जंपंति । चोरस्स गिहे एरिस - महिलापत्तं न संभवइ ॥ ९५० ॥ वत्थालंकारधरा, मुत्ता लच्छि व्व असममुत्तीए । जस्स गिहिगिहिणीयं, सो चोरत्तेण किं जियइ ॥ ९५९ ॥ गागीए सु च्चिय, चोरो संभवइ इय वियारित्ता । तं गिहिऊण मिठ, खिवंति सूलाइ तक्कालं ॥९५२॥
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