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________________ 5 10 अष्टमं सद्धर्मफलद्वारम् ३१७ ता भद्दे ! एस जिओ, सरिसो अंगारकारयनरस्स । सयलजलपाणतुल्ला, भोगा सुरवंतराईणं ॥७९७।। सुरसुक्खेहि न त्तितो, जो जीवो सो पिए ! कहमियाणि । तिप्पइ नरभोगेहिं, कुसग्गठियजललवसमेहिं" ॥७९८॥ "अह भणइ पउमसेणा, तइयपिया नाह ! इत्थ जीवाण । कम्मायत्तं सव्वं, ता विसए भुंजसु अविग्धं ॥७९९।। संति बहुदिटुंता, पवत्तगा वारगा य इत्थत्थे । जह नेउरपंडीए, गोमाउस्स वि कहा भणिया ।।८००। रायगिहाभिहनयरे, आसि पुरा देवदत्तनामेण । रिद्धो सुवन्नगारो, तस्स सुओ देवदिन्नो य ॥८०१॥ अह दुग्गिल त्ति भज्जा, संजाया तस्स देवदिन्नस्स । बहुबुद्धिबलोवेया, सोहग्गमहानिही दक्खा ॥८०२।। सा जलमज्जणहेउं, ससहीया अन्नया नई पत्ता । तिक्खकडक्खसरेहिं, विधंती तरुणजणहियए ।।८०३।। परिहियनिम्मलवसणा, कणयाभरणेहि भूसियसरीरा । नइतडमलंकरेई , सा जलदेवि व्व पच्चक्खा ॥८०४।। उन्नयपओहरजुगं, पव्वयदुग्गं व वम्महनिवस्स । पयडंती सा सणियं, उत्तारइ कंचुयं तत्थ ॥८०५।। कंचुयगमुत्तरीयं च, अप्पिउं सा सहीइ हत्थम्मि । हंसि व्व मंदमंदं, तीराओ नीरमाविसइ ॥८०६॥ दूराओ वि पसारिय-तरंगहत्था तरंगिणी अहयं । आलिंगइ सव्वंगं, चिराउ मिलियं वयस्सि व ।।८०७॥ सा पउमपत्तनयणा, कीलंती तज्जलम्मि सिच्छाए । पाणीहि जलं दारइ , अरित्तदंडेहि बेडि व्व ॥८०८।। तं तह नइप्पवाहे, कीलंतिं जलनिहिम्मि देवि व । पिक्खइ को वि दुसीलो, नागरतरुणो परिभमंतो ॥८०९॥ 15 20 25 Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002558
Book TitleDharmvidhiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprabhsuri
PublisherBhadrankar Prakashan
Publication Year2009
Total Pages426
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Ritual, & Vidhi
File Size16 MB
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