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श्रीधर्मविधिप्रकरणम् अह नेमित्तियमुहओ, इन्भेहि सिट्ठिणा वि निण्णइयं । सुद्धं विवाहलग्गं, तद्दिणओ सत्तमदिणम्मि ॥४९८॥ कन्नापियरो अट्ठ वि, भायर इव एगचित्तवित्तीओ। कारावंति मिलित्ता, पाणिग्गहमंडवमुयारं ॥४९९।। कारविया उल्लोया, विचित्तवन्नेहि पट्टवत्थेहिं । लंबावियाउ मुत्ता-दामाओ दित्ततेयाओ ।।५००।। सोहइ य तत्थ भूमी, सव्वत्तो दिन्नमुत्तियचउक्का । मंगलमहीरुहुग्गम-कएण पक्खित्तबीयत्तं ॥५०१॥ उच्चतरतोरणाणं, पल्लवचिंधेहिं पवणचरिलेहिं । सो मंडवो विरायइ , वरआहवणं कुणंतु व्व ॥५०२॥ अह वन्नयम्मि खित्तो, जंबूकुमरो विसुद्धदिवसम्मि । परिहियकुसुंभवत्थो, सो सोहइ बालतवणु व्व ॥५०३॥ खिवियाउ वन्नयम्मी, कन्नाओ नीहरंति न गिहबहिं । पिक्खंति नेव सूरं पि, रायदारा इव ठियाओ ॥५०४॥ तो नियनियठाणेसुं, कुमरो तह कन्नयाउ सव्वाओ । विहिणा मंगलन्हाणं, कारवियाओ सुहमुहुत्ते ॥५०५।। जंबुकुमरस्स केसे, धूवियबद्धो सिरम्मि धम्मिल्लो । कन्नेसु परिहियाई, मुत्तियमयकुडलाइं च ॥५०६।। खिविओ य तस्स मुत्ता-हारो आनाभिलंबिओ कंठे । विहियं विलेवणं तह, सव्वंगं चंदणरसेण ॥५०७॥ सयलालंकारधरो, सदसाइं देव-दूससरिसाइं । परिहइ सियवत्थाई, विवाहमंगलकए कुमरो ॥५०८॥ अह वरतुरयारूढो, समाणवयमित्तनियरपरियरिओ। उभयतडेसु बहूहिं, उत्तारिजंतलवणभरो ॥५०९॥ परसंरतमंगलरवो, बहुविहवज्जंतमंगलाउज्जो । पत्तो विवाहमंडव-दुवारदेसम्मि रिसहसुओ ॥५१०।।
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