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श्रीधर्मविधिप्रकरणम्
न तहा कयकट्ठेणं, सुदुक्करेणावि पीडिओ अहयं । जह तीसे विरहेणं, सा कह होही मह विओए ||२९१ || जइ अज्ज वि जीवंतीं, सुलोयणं कह वि तं लहिस्सामि । तो भोगेसु अतित्तो, अहं रमिस्सामि सह तीए ॥ २९२॥ इय चिंतातंतूहि, वेढन्तो कोलिय व्व अप्पाणं । गुरुजणमपुच्छिऊणं, भवदेवो झत्ति नीहरिओ ||२९३ || पत्तो तम्म सुगामे, जाव ठिओ बाहिराययणे । ता संपत्ता सह बं-भणीइ नारी गहियकुसुमा ॥ २९४ ॥ सो तीइ वंदिओ अह, तं पुच्छइ कहसु मज्झ इह भद्दे ! | किं अज्जवरट्ठउडो, रेवइभज्जा य जीवति ॥ २९५॥ तीए भणियं मुणिवर !, दो वि विवन्नाई तो मुणी भणइ । तप्पुत्तेण नवोढा, जा चत्ता अत्थि सा किं नो ? ॥ २९६ ॥ तो नागिला विचितइ एसो भवदेव एव गहियवओ । जइ वा पुच्छामि अहं, किमत्थमित्थागओ इहि ॥ २९७ ॥ तो तीए संवुत्तो, अज्जवरट्ठउड-रेवईपुत्तो । भवदेवो सि तुमं चिय, कहेसु मह किमिह संपत्तो ॥ २९८ ॥ तत्तो भणियं मुणिणा, भद्दे ! उवलक्खिओ तए साहू | भवदेवो हं सो चेव, नागिलाजीवियाहिवई ॥ २९९ ॥ तइया तं तह मुत्तुं गएण नियबन्धवोवरोहेण । इच्छाविरहे विमए भद्दे ! दुक्करवयं गहियं ॥ ३००॥ अहुणा अंकुसरहिओ, अहं विवन्नम्मि बंधवे तम्मि | कहमत्थि नागिला सा, इय पत्तो तं निरिक्खेउ ||३०१ || अह सा चिंता हियए, पल्लट्टिय वयगुणं चिरादिट्ठ । एस न मं उवलक्खइ, ता जाणावेमि अप्पाणं ॥ ३०२ || तो ती उल्लवियं, मुणिंद ! सा नागिला अहं एसा । नवपरिणीया तह अ-द्धमंडिया जा तए चत्ता ॥ ३०३ ॥
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