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________________ २६८ श्रीधर्मविधिप्रकरणम् सोयइ पसन्नचंदो, धिद्धी मूढेण किं मए विहियं ? । पिउपुत्ताण विओगो, कओ न पत्तो स भाया वि ॥१६१॥ पिउपासाओ भट्ठो, हा कह जीविस्सई स भाया मे ? । जीवइ किच्चिरकालं, मीणो नीराउ नीहरिओ ॥१६२॥ इय दुक्खेणं तत्तो, संजाओ अरइभायणं राया । उव्विल्लइ सयणीए , देवो आसन्नचवणु व्व ॥१६३।। इत्थंतरम्मि तीसे, वेसाए मंदिरम्मि मुरयझुणी । भूवइणो कन्नेसुं , दुस्सहसल्लं व पविसेइ ॥१६४॥ तो भणियं भूवइणा, नयरं मह दुक्खदुक्खियं सव्वं । को लोगुत्तरचरिओ, जस्स पुरो एस मुरयरवो ? ॥१६५।। अहवा सकज्जनिट्ठो, लोओ ता एस मुरयसद्दो वि । कस्स वि पमोयहेऊ, मुग्गरघाउ व्व मज्झ पुणो ॥१६६।। अह तं नरवइवयणं, जणस्सुईए कहं पि वेसाए । तीसे कन्नावालं, कुल्लीइ जलं व पूरेइ ॥१६७॥ तत्तो पसन्नचंदो, पगब्भवयणाइ तीइ वेसाए । जोडियकरकमलाए, अत्थाणसहाइ विन्नत्तो ॥१६८॥ पहु ! जोइसिएण पुरा, इय कहियं मज्झ तुह घरे को वि । रिसिवेसो एइ जुवा, तस्स तुमं दिज्ज नियकन्नं ॥१६९।। तो देव ! मज्झ गेहे, पसु व्व ववहारवज्जिओ अज्ज । रिसिवेसो कोइ जुवा, पत्तो कन्ना य से दिन्ना ॥१७०॥ तस्स विवाहे सामिय !, मह गेहे गीयतूरनिग्घोसो । तुह दुक्खं च न नायं, ता अवराहं मह खमेसु ॥१७१॥ अह रन्ना आइट्ठा, वेसहरे दिट्ठपुव्विणो पुरिसा । कुमरोवलवखणकए , तेहि वि उवलक्खिओ गंतुं ॥१७२।। तो ते आगंतूणं निवस्स साहंति कुमरआगमणं । राया वि दिट्ठसुस्समिणउ व्व अहियं गओ हरिसं ॥१७३।। 15 25 Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002558
Book TitleDharmvidhiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprabhsuri
PublisherBhadrankar Prakashan
Publication Year2009
Total Pages426
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Ritual, & Vidhi
File Size16 MB
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