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अष्टमं सद्धर्मफलद्वारम्
तो भणियं गणियाए, महरिसि ! अतिहीण आसमे अम्ह । उवयारपयं एयं, ता कह न तुमं पडिच्छेसि ? ॥१४८॥ जइ अम्ह आसमाणं, नेव पडिच्छेसि एरिसायारे । तो मुणिपुत्त ! तुमं इह, वसिउं न लहेसि उडवम् ॥ १४९ ॥ तत्तो तावसकुमरो, मंताउ वसीकओ विसहरु व्व । तव्वासलोभवसओ, कत्थ वि अंगं पि न धुणे || १५०|| अह तस्स केसवासं जडिलं अब्भंगिऊण तिल्लेण । गणिया सणियं सणियं, उन्नापिंडं व विवरे ॥ १५१ ॥ अब्भंगिऊण तीए, मद्दिज्जंतो स तावसो जाओ । सुहनिद्दाइयनयणो, कंडूइज्जत इव वसहो ॥१५२॥ अह हाविऊण सा तं तत्थ कओण्हेहिँ गंधवारीहिं । परिहावइ वत्थेहिं, आभरणाई च साराई ॥ १५३॥ तो गणियाभणिएणं, परिणीया तेण कन्नगा एगा । सा तस्स करे सोहइ, गिहत्थलच्छि व्व मुत्तिई ॥ १५४ ॥ गाइंति य महुरसरं, बहूवरं तत्थ ताउ वेसाउ | चितइ रिसिकुमरो पुण, पढंति किममी महामुणिणो ? ॥ १५५ ॥
वाइंति य वेसाओ, मंगलतूराइ महुरनिग्घोसं । सो कुमरो पुण कन्ने, पिइ किमियं ति संभंत ॥१५६॥ अह कयमुणिवेसाओ, वेसाओ जाओ कुमरआणयणे । पत्ताउ ताउ तइया, आगंतुं विन्नवंति निवं ॥१५७॥ देव ! वणे सो कुमरो, बहुप्पयारेहिं तह पलोभविओ । जह संकेओ गहिओ, अम्हेहि समं इहागमणे ॥ १५८ ॥ नवरं तम्मि पसे, तइया पत्तस्स सोमचंदस्स सावभयाओ नट्ठा, अम्हे अबल त्ति सच्चविरं ॥१५९॥ सो पुण कुम अम्हे, गवेसमाणे पलोभणवसाओ । वणगहणम्मि भमिस्सइ, न गमिस्सइ आसमं पिणो ॥ १६० ॥
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