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श्रीधर्मविधिप्रकरणम् इह अत्थि सयं खित्तं, बहुदविणं मज्झ तं तुमं गिण्ह । इय भणिए तं कड्डिय, रहम्मि आरोवियं तेहिं ॥१३५।। तत्तो कमेण पत्तो, पोयणपुरसन्निहिं भणइ रहिओ । तावस ! जो तुह इट्ठो, सो पोयणआसमो एस ॥१३६।। अह रहिएणं किं पि हु , वक्कल-चीरिस्स अप्पियं दविणं । हसमाणेण य भणिओ, तावसकुमरो इमं वयणं ॥१३७॥ एयम्मि आसमपए , न हु उडवो लब्भए विणा दविणं । ता कस्स वि दव्वमिमं, दाऊणं आसमं किणसु ॥१३८॥ अह रहिए ठाणगए , सो कुमरो पुरघराइ पिक्खंतो । किं इत्थ जामि किमिहंति, चिंतगो भमइ नयरम्मि ॥१३९॥ पुरिसाणं इत्थीण य रिसिबुद्धीए स मुद्धधीकुमरो । अभिवायणवाऊलो, हसिज्जए नयरलोएण ॥१४०॥ अह सो पुरे भमंतो, एगाए मंदिरम्मि वेसाए । पविसेइ अक्खलंतो, सरु व्व कोदंडपरिमुक्को ॥१४१।। सो वेसहरं आसम-पयं ति वेसं च महरिसिं मुणइ । तो मुद्धमई एसो पभणइ तायाभिवाएमि ॥१४२॥ पत्थइ य तत्थ एवं, तं गणियं मज्झ उडवमप्पेसु । एवं विक्कयदव्वं, महरिसि ! गिण्हेसु एयं ति ॥१४३॥ तो वेसाए वुत्तं, तुह उडवो एस अप्पिओ कुमर ! । इह उवविस त्ति भणियं, आहूओ नाविओ तीए ॥१४४॥ अह वेसाएसेणं, अणिच्छमाणस्स तस्स कुमरस्स । सुप्पोवमपायनहे, उत्तारइ नाविओ तुरियं ॥१४५॥ तत्तो गणिया सणियं, वक्कलचीरावमोयणं काउं । तं कुमरं हाणकए, पुत्ति परिहावए सहसा ॥१४६॥ आजम्मं मुणिवेसो, मह एसो ताय ! मा इमं गिन्ह । अह सो वक्कलवत्था-वणए बालु व्व आरहडइ ॥१४७॥
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