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अष्टमं सद्धर्मफलद्वारम्
अहग सो वि सोमचंदे, ठाणगए आगओ चउदिसं पि । अत्थं व नासियत्थो, वेसाओ ताउ पिक्खेइ ॥१२२॥ पिक्खइ रहियं चेगं, धावंतो जूहभट्ठहरिणुं व्व । तं पि रिसिं मन्नतो, पभणइ तायाभिवाएमि ॥१२३॥ अह आहरही महरिसि-कुमार ! तं कत्थ गच्छसि कहेसु ?। सो भणइ पोयणासम-गमणं इच्छामि ताय ! अहं ॥१२४॥ रहिणा भणियं अहमवि, समुज्जुओ पोयणासमे गंतुं । तो चलिओ तं पुरओ, काऊणं अग्गकज्जं व ॥१२५।। सो मग्गे वच्चंतो, रहियपियं रहवरम्मि आरूढं । ताय त्ति वारंवारं वक्कलचीरी पयंपेइ ॥१२६।। अह रहियं रहियपिया, पुच्छइ ताय त्ति कह इमो भणइ ? । सो आह एस जम्हा, वसइ वणे इत्थिरहियम्मि ॥१२७॥ खेडिज्जंते रहवर-तुरए दट्टण सो मुणी भणइ । वाहिज्जंति किमेए , ताय ! मिगा जुज्जइ न एवं ? ॥१२८॥ तत्तो पभणइ रहिओ, हसिऊणं भद्द ! तावसकुमार ! । एएसि कम्ममेयं, मियाण नो इत्थ दोसु त्ति ॥१२९।। अह रहिएण पहम्मी, वक्कलचीरिस्स मोयगा दिन्ना । ते भक्खिऊण सुमरिय-पुव्वरसो भासइ इमं च ॥१३०॥ ताय ! मह पोयणासम-निवासिमहरिसिजणेण दिन्नाइं । एरिससरिसफलाइं, ताई मए भक्खियाइं च ॥१३१॥ इत्थंतरेण रहिओ रुद्धो एगेण पबलचोरेण । तो अन्नुन्नजुद्धं, मल्लाण व ताण संजायं ॥१३२॥ तोरहिणा सो चोरो, गाढपहारेण आहओ मम्मे । चिंतइ को इह गव्वो, बलियाण वि हुंति अइबलिया ॥१३३॥
अह तक्करेण भणियं वन्निज्जइ वेरिणो वि घाउ त्ति । रहिय ! तए हं जित्तो, तुट्ठो ता किं पि तुह देमि ॥१३४॥
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