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अष्टमं सद्धर्मफलद्वारम्
अह पत्थावे पत्ते, नमिऊणं वीरजिणवरं सिरसा । पुच्छइ सेणियराओ, पडअंचलपिहियमुहकमलो ॥४४॥ "सामिय ! पसन्नचंदो, झाणत्थो वंदिओ मए जइया । जइ तइया वि विवज्जइ, ता पावइ कं गई एसो ? ॥४५ ॥ तो भइ भुवणनाहो, तइया कालं करेइ जइ एसो । ता गच्छइ निब्भंतं, सत्तमनरयं महीनाह ! ॥४६॥ इय जिणवयणं सोउं, संसयपत्तो निवो विचितेइ । उग्गतवसोऽवि एयस्स, सामिणा का गई कहिया ? ॥४७॥ तत्तो खणंतरेणं, पुणरवि पुच्छेइ सेणिओ सामि । संपइ पसन्नचंदो, कयकालो कत्थ गच्छेइ ? ॥४८॥ अह पभणइ जिणनाहो, मगहाहिव ! एस महरिसी इहि । जइ कालं कुणइ तओ, वच्चइ सव्वट्टसिद्धिम्मि" ॥४९॥ तत्तो पभणइ राया, भयवं ! किं भासियं दुहा तुम्ह । मह कहसु मूढमइणो, न अन्नहा होइ जिणवाणी ॥५०॥ सामी जंपइ नरवर !, स महप्पा वंदिओ तए जइया । तइया रुद्दज्झाणी, संपइ पुण सुक्कझाण त्ति ॥५१॥ रुद्दज्झाणवसाओ, सत्तमनरयारिहो तया एसो । सो सव्वसिद्धिजुग्गो, सुक्कज्झाणेण इहि तु ॥५२॥ "तो पुच्छइ नरनाहो, महरिसिचरिएण तेण विम्हइओ । कह जायंते जुगवं विसपीऊसं व झाणदुगं ॥५३॥ आह जो तुह सेवग - दुम्मुहनामस्स वयणओऽणेण । नियमंतिसयासाओ, सुणिओऽभिभवो नियसुयस्स ॥५४॥ तो सुयममत्तमइरा-तरलियचित्तो विमुक्कदिक्खु व्व । मंतीहि समं मणसा, स महप्पा जुज्झिउं लग्गो ॥५५ ॥ पच्चक्खेहि व सचिवेहिँ, तेहिँ अहियाहियं स जुज्झतो । मुक्खु व्व सत्थरहिओ, संजाओ सो पसन्नरिसी ॥५६॥
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