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श्रीधर्मविधिप्रकरणम् अहमवि भूयत्तो इव, भमिउं नाणाविहेसु देसेसु । निप्पुन्नो इह पत्तो, ठिओ य नियजणयआवासे ॥१११॥ ता मित्त ! गेहमज्झे, अज्ज वि फुडमत्थि कत्थ वि निहाणं । सयणा वि बिंति एवं, को वि परं न मुणए ठाणं ॥११२॥ जो तं मह उवदंसइ, निमित्तमइजोइसेहिं तस्साहं ।। नियभाउणु व्व अद्धं, नूण विभजिय समप्पेमि ॥११३।। अह आह सत्थवाहो, मित्त ! तुमं मा विसीयसु इहत्थे । तुह चिंतावाहिमिमं, अहमवणिस्सामि विज्जु व्व ॥११४।। तो भणइ सिट्ठितणओ, धणंजओ भाय ! जइ तए एवं । विहियं ता तुह तुल्लो, उवयारी मह न भुवणेऽवि ॥११५।। इय भणिऊण पयंपइ, धणंजओ मित्त ! चलसु मह गेहे । तो सुरदत्तो पत्तो, सयणस्स व तस्स आवासे ॥११६।। अह नियबुद्धिबलेणं, सुरदत्तो भणइ भाय ! नियगेहे । खित्ते इव खडिऊणं, ववेइ एरंडबीयाई ॥११७।। तो ताइँ तुम सिंचसु , सलिलेणं जलहरु व्व निच्चं पि । जेण तुह जणयनिहिणो, ठाणं देसेमि अचिरेण ॥११८।। अह तस्स तमाएसं, गुरुणो इव सो तह त्ति आयरई । तत्थेरंडारामं, मालाकारु व्व कुव्वइ य ॥११९॥ अह तं मज्झे एगो, एरंडो मुयइ वड इव परोहे । तो सुरदत्तो पभणइ, भाय ! तुमं मुणसु इह दविणं ॥१२०॥ कयउवयारं पि तओ, उक्खणइ धणंजओ तमेरंडं । जं वाहीइ गयाए, विज्जो वयरि व्व पडिहाइ ॥१२१॥ तो तत्थ निसाइ भुवं, सो सुरदत्तेण संजुओ खणई । कड्डइ य कणयकोडी-तियगं नियकरनिहित्तं व ॥१२२॥ तो जायम्मि पभाए, तं कणयं विभजिऊण ते दो वि । गिण्हंति भायरा विव, अद्धो अद्धेण काऊण ॥१२३॥
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