________________
सप्तमं धर्मभेदद्वारम्
२३७ भयवं ! किं जिट्ठज्जो, गसिओ सिंहेण जेण तत्थ हरी । जिंभाइंतो चिट्ठइ, तओ गुरू देइ उवओगं ॥२३७॥ भणइ य वंदह गंतुं , चिट्ठइ जिट्ठज्ज एव न उण हरी । को पुणरवि पत्ताओ, पिक्खंति य थूलभद्दमुणिं ॥२३८॥ "तो वंदिय भत्तीए, उवविट्ठाओ कहंति नियसुद्धि । सह सिरियएण अम्हे, पव्वइयाओ भवविरत्ता ॥२३९।। सिरिओ य अइछुहालू , काउं एक्कासणं पि न समत्थो । अन्नदिणे पज्जुसणे, पयंपिओ सो मए एवं ॥२४०॥ अज्जो ! पज्जोसवणं, अज्ज तओ कुणसु पोरसिं ताव । तेण वि पच्चक्खाया, पुन्नाए तीइ पुण भणिओ ॥२४१॥ 10 पच्चक्खसु पुरिमढें, वंदसु जिणचेइयाइँ भद्द ! तुमं ।। अह सो तम्मि वि पुन्ने, तवलोभाओ मए भणिओ ॥२४२॥ कुणसु अवटुं तम्मि वि, पुन्ने भणिओ समागया संझा । किं कुणसि अभत्तटुं ? सुत्तस्स वि वच्चिही रयणी ॥२४३॥ तो मम उवरोहेणं, तह विहिए रयणिमज्झसमयम्मि । खीणम्मि आउयबले, सिरिओ पंचत्तमणुपत्तो ॥२४४॥ पच्छा मह असमाही, जाया रिसिघाइणि त्ति पावाऽहं । अह समणसंघपुरओ, उवट्ठिया पायछित्तकए ॥२४५॥ संघो भणइ अदोसा, तं सि तओ मह न देइ पच्छित्तं । भणियं च मए न हवइ, एवं मह माणससमाही ॥२४६।। ___ 20 जइ मह केवलनाणी, कहइ सयं हवइ भोयणं ता मे । इय निब्बंधं नाउं, काउस्सग्गं कुणइ संघो ॥२४७॥ तो संघपभावेणं, सासणदेवी भणेइ आगंतुं । आइसउ मज्झ संघो, कज्जं तं जेण साहेमि ॥२४८।। सा भणिया संघेणं, नेसु इमं संजइं विदेहम्मि । सीमंधरजिणपासे, संसयमवणावसु इमीए ॥२४९॥
15
25
Jain Education International 2010_02
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org