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श्रीधर्मविधिप्रकरणम् अह तीए गंठीए , हिययम्मि वि सो करे चडंतीए । तमवत्थं संपत्तो, जा मरणाओऽवि अइदुसहा ॥४२।। जणविप्पयारणकए , संझाए एस खिवइ इह गंठिं । तो गिण्हेइ पभाए , इय सगडालो भणइ नंदं ॥४३॥ सचिव ! वियाणियमेयं, तुमए निउणं पि पुव्वकहियं व । इय वन्नंतो मंति, पत्तो राया नियावासे ॥४४॥ तो सचिवं पइ कुविओ, पडियारं चिंतए वररुई वि । पुच्छइ तग्गिहवत्तं, सयणो इव चेडियाईयं ॥४५।। अह काऽवि सचिवचेडी, उवयरिया तेण कहइ तस्स इमं । भुंजिस्सइ मंतिगिहे, निवो सयं सिरिययविवाहे ॥४६॥ तो निवढोयणजुग्गाई, तत्थ खग्गाइयाई सत्थाई । सज्जिजंति निरंतर-मारंभं संगरस्सेव ॥४७॥ तत्तो वररुइविप्पो, छलवेई तं छलं वियाणित्ता । चणयाइदाणपुव्वं, इय पाढइ डिंभरूवाई ॥४८॥ एउ लोउ न वि याणइ, जं सगडालु करेसइ । नंदराओ मारेविणु , सिरिओ रज्जि ठवेसइ ॥४९।। अह तिगचउक्कच्चर-ठाणाइसु तं पढंति ते डिभा । तो जणसुई वि एवं, सुणिउं नंदोऽवि चिंतेइ ॥५०॥ जंपंति बालया जं, जं जं जंपंति साहवो लोए । जा उप्पत्तियभासा, न हवइ सा अन्नहा नूणं ॥५१॥ तो तप्पच्चयहेउं, नियपुरिसं पेसए सचिवभुवणे । सो गंतुं सत्थाई, जहदिटुं साहइ निवस्स ॥५२॥ तत्तो सेवावसरे, आगच्छंतस्स मंतिणो नमिउं । सह विहिणा नंदनिवो, कोवेण परम्मुहो ठाइ ॥५३।। अह तं कुवियं नाउं, सचिवो सिरियं गिहं गओ भणइ । केण वि निवस्स पुरओ, रिउ व्व कहिओ अभत्तोऽहं ॥५४॥
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