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श्रीधर्मविधिप्रकरणम् नो वा कत्थेस निवो, कत्थ इयं लंखपुत्तिया मइला । कत्थ इमो अणुरागो, अम्हाणं सन्निहाणेऽवि ॥८२॥ एवं विडंबणाफल-मवलोइय एरिसं भवसरूवं । पडिबंधो विसएसुं , जो अज्ज वि सो महामोहो ॥८३॥ इय सुद्धभावणानल-जालानिद्दड्डकम्मकक्खाए । केवलनाणुप्पत्ती, जाया तीसे वि तक्कालं" ॥८४॥ "निम्मलनियकुललंछण-जणयं तं तारिसं जणविरागं । पिक्खेऊण विरत्तो, चिंतइ हियए नरिंदो वि ॥८५॥ पहयं पहत्तं, पब्भटुं तह विवेयमाहप्पं । लोयविरुद्धं पि मए, जं एयं चिंतियमकज्जं ॥८६॥ जह जलही सलिलेहि, दुप्पूरो इंधणेहिँ वा । तह एसोऽवि हु अप्पा, बहुएहि वियसकुक्खेहि ॥८७॥ चइउं कुलादि एसो रत्तो एआइ अह धणासाए । संपत्तो मह पासे, मए वि पुण एरिसं वि हियं ॥८८॥ ता को अप्पवसप्पा, निवसइ संसारचारए इत्थ । जत्थ चलंति अठाणे, मइओ अम्हारिसाणं पि ॥८९॥ इच्चाइ भावणाजल-पक्खालिअकम्मकद्दमो सोऽवि । आरुहिय खवगसेटिं, संजाओ केवलन्नाणी" ॥१०॥ अह तेसि चउण्हं पि हु, अप्पडिहयनाणमुणियतिजयाणं । एसा ठिइ त्ति सासण-देवी अप्पेइ मुणिवेसं ॥९१।। आसन्नवंतरेहिं तच्चरियचमक्किएहिँ अह तत्थ ।। स इलासुयस्स वंसो, सुवन्नकमलीकओ सहसा ॥१२॥ तत्तो तत्थासीणो, पडिबोहत्थं समत्थलोयाण । उवइसइ इलापुत्तो, एवं नियपुव्वभवचरियं ॥९३॥ "नयरम्मि वसंतउरे, आसि दिओ अग्गिसम्मनामेण । जो सच्छंदमई वि हु, गुरुजणआणं न लंघेइ ॥१४॥
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