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सप्तमं धर्मभेदद्वारम्
एयाइ अछिप्पाए, नडीइ रन्नो न लज्जइ इयाणिं । अवजसरज्जब्भंसाइ, जायए जेण तक्कालं ॥६९॥ सव्वत्थ वि अक्खलियं, वित्थरइ महीइ मोहनिवललियं । परमपयबद्धमइणो, मुत्तूण इमे महामुणिणो ॥७०॥ सिंगारसुंदरासु वि, दिट्ठासु वरंगणासु जं एवं । धाराहय व्व वसहा, वच्चंति महिं पलीयंति ॥७१॥ दूरे वयणवियारो इमाण न रमइ मणोऽवि रमणीसु । तिहुयणजई वि मणयी, जिइंदियाणं कुणउ किं वा ॥७२॥ ता एए च्चिय धन्ना, अइनिम्मलसीलधारिणो तिजए । लग्गो अहं पि संपइ, उत्तममग्गम्मि एयाण ॥७३॥ एवं तिगरणसुद्धं, भावंतो खविय घाइकम्मो सो । भावचरित्तारूढो, पावेई केवलं नाणं" ॥७४॥ "नडधूया वि हु नाऊण, निवइणो तं मणोमयं भावं । चिंतइ धिरत्थु मह जुव्वणस्स तह रूवललियाण ॥७५॥ मज्झ कए एगेणं एएणं मोहमोहियमणेणं । चत्ताइ जणयजणणी-लच्छीसकुलक्कमाईणि ॥७६॥ बीएण निवइणा पुण, इमिणा तं कि पि ववसियं हियए । जं वुत्तुं पि न तीरइ, विवेयवंतेहिँ वयणेण ॥७७॥ ता एसो संसारो, पिक्खिज्जंतो विवेयदिट्ठीए । सव्वाणत्थाण गिहं, परिहरियव्वो कुसंगो व्व ॥७८॥ इय संवेगसुहारस-सित्ताए भवविरत्तचित्ताए । तीए वि खीणकम्माइ, पावियं केवलं नाणं" ॥७९॥ "अह तत्थ निवइपासे, आसीणा आसि पट्टदेवी वि । सावि हुं तं निवभावं, दिट्ठिवियाराइणा मुणइ ॥८०॥ चिंतइ य महंतोऽवि हु , जगजगडमोहमोहिया होही । मइराउम्मत्ता इव, किच्चाकिच्चं न जाणंति ॥८१॥
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