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श्रीधर्मविधिप्रकरणम्
तो जलपूरियचालणि हत्थं दट्टं सुभद्दमायति । अब्भुट्ठइ संभंतो, समत्थजणपरिवुडो राया ॥१०१॥ आगच्छेसु महासइ !, साइसए असमसीलसुरमहिए । उग्घासु दाराई, विहिऊण पसायमम्हाणं ॥ १०२॥ इय अच्छरियं दट्टु, सुरसिद्धगणा समागया तत्थ । राया विनिययछत्तं धारेइ सुभद्दसीसम्म ॥१०३॥ गच्छइ तओ सुभद्दा, पुव्वदुवारम्मि सयलजणसहिया । मंगलतूररवेणं, समंतओ उच्छलंतेण ॥१०४॥ तो भणिय नमुक्कारं, सा चालणिसलिलपुन्नचलुएण । तद्दारकवाडाई, अच्छोडइ तिन्नि वाराओ ॥ १०५ ॥ अह उग्घडियं दारं, तिमिसपहार व्व तीइ पोलीए । चक्किस्स व दंडेणं, पहयं सलिलस्स चलुएण ॥ १०६ ॥ तो तक्खणेण सहरिस--सुरसिद्धगणेण दुंदुहिनिनाओ । वित्थारिओ नहम्मी, मेहेणं गज्जियरव्वु व्व ॥१०७॥ विहिया य तीइ उवरिं, वुट्ठी कुसुमाण पंचवन्नाण । जणिओ जयजयकारो, उग्घुट्ठो सीलमहिमा य ॥ १०८ ॥ अह जियसत्तुनरिंदो, तीसे कंठम्मि खिवइ जयमालं । देवीमिव भत्तीए, पुरओ होउ च संथुणइ ॥ १०९॥
" तं धन्ना कयपुन्ना, तुज्झ सुलद्धं च माणुसजम्मं । जं तियसाण वि पुज्जं, पालेसि अखंडियं सीलं" ॥११०॥ इय थुव्वंती रन्ना, पिक्खिज्जंती जणेण अकलंका । असईमुहकमलाई, संकोयइ चंदलेह व्व ॥ १११॥ तत्तो तहेव गंतुं, दाहिणपच्छिमपओलिदाराई । उघाडि सुभद्दा, पत्ता उत्तरदिसि दुवारं ॥ ११२॥ तो भइ इत्थ नारी, जा काऽवि सइत्तगव्वमुव्वहइ । सा संपइ पच्छा वि हु, उग्घाडिज्जउ इमं दारं ॥ ११३ ॥
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