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श्रीधर्मविधिप्रकरणम् निप्पीडकम्मसरीर-त्तणओ तं तणं नेव अवणायं । दिटुं च सुभद्दाए , भिक्खादाणुज्जुयमणाए ॥५०॥ ता चिंतेइ सुभद्दा, निप्पीडकम्मत्तणं अहह मुणिणा । जं दिट्ठिपविलृ पि हु , ओसहमिव अवणए न तिणं ॥५१॥ जइ एवं चिय एयं चिट्ठिस्सइ ता इमस्स साहुस्स । पीडाकए भविस्सइ, वाहि व्व उविक्खिआ संता ॥५२॥ इय चिंतिऊण तीए , दितीए तस्स साहुणा भत्तं । नियलाघवेण तिणयं, तं जीहग्गेण अवणायं ॥५३|| तस्संतिआ य चंदणतिलआ तत्कालनिम्मिआ मुणिणा । भालयले संकंता, दीवग इव अवरदीवाओ ॥५४॥ सा तीए मुणीणाऽवि ह , नेव अणाभोगजोगओ नाओ । तणीकयभालयला, मुणी वि गेहाउ नीहरिओ ।।५५।। तत्थ सुभद्दाखूणं, निरिक्खमाणाहि सासुयाइहिं । सा दिट्ठा तह सिट्ठा, तक्कालं बुद्धदासस्स ॥५६।। पुत्तय ! पत्तियसि तुमं, अम्हाणं न व ता सयं नियसु । कह संकंता एसा, तिलआ मुणिणा निलाडम्मि ॥५७॥ तं पच्चक्खं पिक्खिय, चिंतेइ मणम्मि बुद्धदासोऽवि । विहिविलासियं व महिलाचरियं ही ही दुरहिगम्मं ॥५८॥ हंसि व्व विसुद्धोभय-पक्खा एसा वि कुणइ जइ एवं । ता एयाए उवरिं, पज्जत्तं मम सिणेहेण ।।५९॥ इय चिंतिय तीए सह, नेहं सो चयइ पिसुणसंगं व । तं सव्वं नाऊणं, चिंतइ हियए सुभद्दा वि ।।६०॥ "जं विसमविसयभोग-प्पराण संसारमावसंताणं । संपज्जंति कलंका, तं न हु अच्छेरयं किं पि ॥६१॥ घरवासवावडाए, विसयपसत्ताइ जो मइ कलंको । संजाओ तं महइ, माणसम्मि थेवं पि हु न दुक्खं ॥१२॥
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