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________________ १८१ सप्तमं धर्मभेदद्वारम् तो सुमुहुत्ते सिट्ठी, सयणजुओ कुणई वरणयं तस्स । पत्ते विवाहलग्गे विच्छड्डेण विवाहं च ॥३७॥ अह भणइ बुद्धदासो, गएसु केसु वि दिणेसु जिणदत्तं । ताय ! सुभदं पेससु , जेण अहं नेमि नियगेहं ॥३८॥ अह जंपइ जिणदत्तो, जुत्तमिमं पुत्त ! किंतु तुह गेहे । सव्वाइ माणुसाई, तुमं विणा मिच्छादिट्ठीणि ॥३९।। ता दाहि त्ति इमाए , जिणधम्मरयाइ कि पि हु कलंकं । जामाउगेण भणियं, विभिन्नगिहं धरिस्सामि ॥४०॥ तो सिट्ठी नियधूयं, पेसइ सा ताइ नियगिहासन्ने । अप्पइ विभिन्नभवणं, पूरेइ य खाइमाइयं ॥४१॥ तीसे गिहम्मि पविसंति, साहवो भत्तपाणगहणट्ठा । सा पडिलाभइ निच्चं, फासुयदव्वेण भत्तीए ॥४२॥ ते अणुदिणं पि पिक्खिय, मच्छरमुव्वहइ सासुयाइजणो । जंपइ य बुद्धदासं, घरणिसरूवं सुणसु वच्छ ! ॥४३॥ अणुदियहमिति मुणिणो, गिहीण एगागिणीइ एगाए । ____15 व(वि)सघरे इव भुयगा, ताव वच्छ ! न सुंदरं एयं ॥४४॥ पडिभणइ बुद्धदासो, कुडुंबलोयं लवेह मा एवं । मन्ने न कुसीलत्तं, इमाइ तुरयस्स सिंगं व ॥४५।। अवि जलइ जलं जलणो, अवि सूरा पच्छिमाइ उग्गमइ । पवणोऽवि हवइ अचली, न वि एसा चलइ सीलाओ ॥४६॥ 20 इय तस्स वयणमायन्निऊण मायाइयाइ सव्वाइं । बहुयं पइ सावससं, दंसंति समच्छरं हिययं ॥४७॥ पिक्खंति सुभद्दाए छलाइ निच्चं कलंकदाणकए । जं मच्छरमूढाणं, किच्चाकिच्चम्मि न वियारा ॥४८॥ अन्नदिणे ताइ गिह, भिक्खट्ठा आगआ मुणी एगो । 25 तद्दिट्ठीए पविटुं, पवणेणं पिल्लियं तणयं ॥४९॥ Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002558
Book TitleDharmvidhiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprabhsuri
PublisherBhadrankar Prakashan
Publication Year2009
Total Pages426
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Ritual, & Vidhi
File Size16 MB
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