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श्रीधर्मविधिप्रकरणम्
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तो मूलदेवनिवई, जियसत्तुनिवेण सह अवंतीसु । पीइं करेइ जमिमो, मम कज्जं साहइ सुहेण ॥२२८।। तत्तो य नियविसिटुं, पेसइ अप्पे वि पाहुडं विउलं । जियसत्तुनिवसमीवम्मि, देवदत्तं समाणेउं ॥२२९।। सो गंतूण अवंति, जियसत्तुमहानिवस्स ढोयणियं । ढोएउं नमिऊण य, करेइ विन्नत्तियं एयं ॥२३०॥ सो देव ! मूलदेवो, देवयवरलद्धिलद्धमाहप्पो । विन्नावडम्मि जाओ, विक्कमराउ त्ति नाम निवो ॥२३१॥ सो भणइ देव ! एयं मह नेहो उवरि देवदत्ताए । जइ अणुमन्नइ एसा, ता पेसह मज्झ पासम्मि ॥२३२।। जियसत्तू वि पयंपइ, का वत्ता देवदत्तगणियाए । सो मूलदेवनिवई, जं मह रज्जस्स वि विभागी ॥२३३।। इत्थागओ न नाओ, तइया सो गुणनिही जमम्हेहिं । तं अज्ज वि मह हियए , खुडक्कए नट्ठसल्ल व्व ॥२३४॥ अह नरवइणा भणिया, आहविउं तत्थ देवदत्ता वि । भद्दे ! तुह अचिरेण वि, एस मणोरहतरू फलिओ ॥२३५।। विन्नायडम्मि नयरे , स मूलदेवो महानिवो जाओ । तुह आणयणनिमित्तं, तस्स विसिट्ठो इमो पत्तो ॥२३६॥ तो रायाएसेणं, महाविभूईइ देवदत्ता सा । पमुइयहियया पत्ता, कमेण विन्नायडपुरम्मि ॥२३७॥ वित्थडेण पवेसिय, पुरम्मि भणिया निवेण सा गणिया । मह रज्ज अज्ज चिय, संजायं संगमे तुज्झ ॥२३८।। तो बाहं अजणंतो, अन्नुन्नं धम्मअत्थकामेण । सो भुंजइ रज्जसिरिं, दीणाणाहाण दाणपरो ॥२३९।। अन्नदिणे सो अयलो, पारसकूलाउ तम्मि नयरम्मि । विविहकयाणगपुन्नो, पत्तो पोउ व्व जलहीओ ॥२४०॥
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