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श्रीधर्मविधिप्रकरणम् तह वि हु कित्तिमनेहा, सा गणिया गुणगणिक्कदिन्नमणा । कीलइ अयलेण समं, विविहविणोएहिँ निच्चं पि ॥९८॥ लहिऊण अंतरं अंत-रंगनेहेण मूलदेवं पि । सा रमइ अणुदिणं पि हु ,जह अयलो नेव जाणेइ ॥९९।। अह तं जंपइ अक्का, मा पुत्ति ! विरुद्धमेरिसं कुणसु । जइ जाणिस्सइ एयं, ता अर्यलो दुम्मणो होही ॥१०॥ को पुत्ति ! जूयकारम्मि, मूलदेवम्मि तुज्झ अणुरागो । अहिलसियदाणपवणे, कह अयले रज्जसे नेव ॥१०१॥ अणुसासिया वि एवं तीसे सिक्खं न तं कुणइ एसा । तत्तो अक्का तं मच्छरेण, अवमन्नए एवं ॥१०२।। मग्गइ अलत्तयं जा, निपीलियं पुंभमप्पए ताव । उच्छूसु जाइएसुं , वियरइ तन्नीरसग्गाई ॥१०३॥ सुमणसगहणावसरे, अप्पइ आणाविऊण निम्मल्लं । तो भणिया सा तीए, किमेवमंबे ! अणुढेसि ? ॥१०४॥ अह भणियं अक्काए , वच्छे ! तुह एरिसम्मि अणुरागो । जं निद्धणजूयारे , रत्ता मुत्तूण सत्थाहं ॥१०५॥ जंपेइ देवदत्ता अंबे ! मा भणसु इह अयाणत्तं । जम्हा मह अणुरागो, गुणनिवहे मूलदेवस्स ॥१०६॥ अक्का भणेइ अयलो गुणहीणो केण मूलदेवाओ? । नाया तुज्झ परिक्ख त्ति, जंपिउं पढइ तप्पुरओ ॥१०७।। सहयारभरियदेसे, रुप्पसि धत्तूरय तुम वच्छे ! । डहरकफुल्लणुरत्ता, भुंजंती तप्फलं मुणसि ॥१०८॥ वुत्तं च देवदत्ताइ, माय ! मा एवमुल्लवसु जेण । को मूलदेवसरिसं, गुणनिवहं वहइ देवो वि ॥१०९॥ अहवा महेसरो वि हु ,संतेसु वि विविहपुप्फनियरेसु । धत्तूरएण इक्केण, तूसए न उण अन्नेण ॥११०॥
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