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सप्तमं धर्मभेदद्वारम्
इय तं पडिवज्जावि य, सव्वंगं कुणइ तस्स अब्भंगं । तो न्हाऊणं दुन्नि वि, जिमंति एगं मि थालम्मि ॥८५।। निच्चं पि नेहसारं, पंचपयारं पि तत्थ विसयसुहं । तीए सह सो भुंजइ, सग्गे सक्को इव सचीए ॥८६॥ अह तत्थ वि जूएणं, रममाणो पभणिओ स गणियाए । पह ! जूयकीलमेयं, मज्जसवक्किं व मा कुणसु ॥८७॥ इच्चाई वयणेहिं, तीए भणिओ वि मुंचइ न जूयं । पत्तं महागहो इव, विविहेहिं वि मंतवाएहिं ॥८८॥ अन्नदिणे निवपासे, पिक्खणगकएण देवदत्ताए । नच्चंतीए वुत्तो, ससिणेहं सो इमं वयणं ॥८९।। पिययम ! नच्चंतीए , मह वायसु पडहमज्ज निवपासे । सो दोहलं च तीसे, तं इ8 पूरइ तहेव ॥१०॥ तो तत्थ तक्खणएणं, तीसे तुट्ठो निवो वरं देइ । सा भणइ देव ! एसो, चिट्ठउ तुह चेव भंडारे ॥११॥ अह तीए नयरीए , रिद्धो अयल त्ति नाम सत्थाहो । जो चाएणऽत्थिजणं, करेइ चितामणिनिरीहं ।।९२॥ सव्वजणाहियलायन्न-रूवसोहग्गगुणविसेसेण । गहियंगु व्व अणंगो, जो मोहइ कामिणिमणाइं ॥१३॥ अह देवदत्तगणिया, रन्ना अयलस्स तस्स सा दिन्ना । सो तीइ गिहे वच्चइ, अवरो धणउ व्व लच्छीए ॥९४|| निच्चं पि तस्स देसा, सा पडिवत्तिं जहोचियं कुणइ । किं नियगिहअवयन्नं, अवमन्नइ को वि कप्पतरूं ? ॥१५॥ अयलो वि देवदत्तं, पइ अच्वंतं धरेइ अणुरागं । दाणाईहि तकिकरे वि आराहए तं च ॥९६॥ धणकणयरयणवत्थाइएहि तीसे गिहम्मि वरिसेइ । निम्मविऊण अउज्जं, वुटुं देवेहिँ जह पुव्वं ॥९७॥
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