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श्रीधर्मविधिप्रकरणम् चोरो इव सिच्छाए , जीसे पसरइ कडक्खविक्खेवो । पिक्खंताण वि कामुय-जणाण अवहरइ हिययाइं ॥२०॥ रइसुक्खेस्स निहीए , अहवा को होउ वन्नणा तीए । जा उवम च्चिय जाया, उवमेयं कत्थ वि न जीसे ॥२१॥ अह सा नियगुणनिवहे, सया वि अच्चंतगव्वमुव्वहइ । निंदइ य नरे एवं, जं पुरिसा किं पि न मुणंति ॥२२॥ तं सोऊणं चिंतइ, गुणतरुमूलं स मूलदेवो वि । एयाइ अहो गव्वो, इत्थीमत्तस्स वि अउव्वो ॥२३॥ इय चिंतिय तं नव्वं, असहंतो पभायसमयम्मि । तग्गिहपच्चासन्नो, होऊणं गाइउं लग्गो ॥२४॥ अह तस्स सुस्सरत्ता-तिसएणं रंजिया जणा सव्वे । चिटुंति पहे उद्धा, धरिया इव निवइआणाए ॥२५॥ अन्नन्नवन्नसंवेह-मणहरं मोहणं पसूणं पि । तग्गीयं सोऊणं, चिंतइ सा देवदत्ता वि ॥२६।। अहह अउव्वो सद्दो, अउव्वभासा अउव्वआलत्ती । अग्गामया य गामे, किं दिव्वो को वि एस नरो ॥२७॥ को इह सवणपुडाणं, जुयलं सहलीकरेइ अम्हाणं । इय पुट्ठा दासीओ, तं पिक्खिय बिंति आगंतुं ॥२८॥ सामिणि ! इह आसन्ने, चिटेइ अउव्वगाइणो को वि । गीएण जस्स लोओ, ठिओ पहे चित्तलिहिउ व्व ॥२९॥ अहमाहवित्ति खुज्जा, नियदासी तीइ पेसिया तत्थ । सा गंतूणं पणमिय, पभणइ तं गायणं एवं ॥३०॥ भो ! देवदत्तगणिया, तुब्भे विन्नवइ पुरिसिरीतिलया । काऊण गुरुपसायं, आगच्छह अम्ह भवणम्मि ॥३१॥ कुमरो धुत्तत्तेणं, जंपइ खुज्जे ! न जुज्जए अम्ह । वेसासंगो जम्हा, पडिसिद्धो सिद्धपुरिसाण ॥३२॥
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