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श्रीधर्मविधिप्रकरणम् अज्ज वि रयणाधारा, पुहवी अज्ज वि न एइ कलिकालो । दीसंति जेण एवं विहाइ वरपुरिसरयणाई ॥२२०॥ जे किर करिकुंभत्थल-मिक्पहारेण चेव खंडंति । ते वि हु जुवईसवियार-दसणेणावि खुब्भंति ॥२२१॥ एसो य महासत्तो, इमीइ इह पत्थिओ अइबहुं पि । खुब्भइ न मणागं पि हु , ता इत्तो होइ दट्ठव्वो" ॥२२२॥ इय जाव निवो चिंतइ, ता सो निच्छयकएण देवीए । भणिओ किं रे नियमा, करेसि नो मज्झ वयणमिमं ? ॥२२३॥ तेणावि जंपियं सहरिसेण, एवं ति अह परुट्ठाए । वाहरियं देवीए रे रे धावेह पाहरिया ! ॥२२४॥ एस पविट्ठो चोरो, मुसिऊणं जाइ रायसव्वस्सं । इय सोउं पाहरिया, पहाविया खग्गचावकरा ॥२२५।। ते हणि हणि त्ति भणिरा, जाव पहारं कुणंति ता रन्ना । भणिया हंहो ! चोरं, एयं रक्खिज्जह ममं व ॥२२६।। अह तेहि वेढिओ सो, अखुहियचित्तो हरि व्व सोडीरो । विरमेइ वंकचूली, रयणि करकलियकरवालो ॥२२७॥ देवि पइ कयकोवो, सिज्जाभवणे निवो वि संपत्तो । कह कह वि लद्धनिद्दो, पच्छिमरयणीइ सुत्तो य ॥२२८॥ अह उग्गयम्मि सूरे, कयपाभाइयसमत्थकायव्वो । अत्थाणे आसीणो, निसिवुत्तंतं सुमरमाणो ॥२२९॥ इत्थंतरम्मि पुरिसेहि, वंकचूली कयप्पणामेहिं । सो देव ! एस चोरु त्ति, जंपमाणेहि उवणीओ ॥२३०॥ दट्ठण तस्स रूवं, विम्हइयमणेण चिंतियं रन्ना । एवंविहाइ कह आगईइ, चोरो इमो होइ ॥२३१॥ जइ सच्चं चिय चोरो, ता किं देवीइ नो कयं वयणं । पायं निब्भयचित्ताण, होइ जं कत्थ वि न खलणा ॥२३२॥
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