________________
5
10
15
20
25
१३८
Jain Education International 2010_02
श्रीधर्मविधिप्रकरणम्
भणियं च तेहिँ अम्हे, तप्पुरओ अवसरं कया कुणिमो । वुत्तं च मए रइणीइ, संपयं जं स वक्खित्तो ॥ १६८ ॥ तेहिँ वि तह त्ति विहियं, अहं पि संज्झाइ पुरिसवेसेण । भाउज्जायाइ समं, तुमं व तो तत्थ उवविट्ठा ॥१६९॥ अह अवसरपज्जंते, दाऊणुचियं नडाण दायव्वं । निद्दाघुम्मियनयणा, इमाइ सह इय पसुत्ताहं ॥१७०॥ इत्तो उवरिं न मुणेमि किं पि नवरं खडड्डड्यं सुच्चा । जीवउ भाया सुचिरं ति, जंपमाणी बुद्धा हं ॥ १७१ ॥ एवं सुच्चा ईसिं, पसंतसोगो पुणो पुणो तेसिं । निर्णयमाण पालणम्मी, उज्जुत्तो सो गमइ कालं ॥ १७२॥ अह परिवारविरहिओ, पुरागरे लुंटिउं अपारंतो । दट्ठू गिहजसीय-माणमुप्पन्नसंतावो ॥१७३॥
मुत्तूण खत्तखणणं, इतो मे नत्थि जीवणोवाओ । इय निच्छिऊण एगो वि, सो गओ नयरिमुज्जेणिं ॥ १७४॥
धणवंतलोयमंदिर-पवेसनीहरणदारपडिदारे ।
पेहिय निसाइ पविसइ, मुसणट्ठा गरुयगिहमेगं ॥ १७५ ॥ अह तम्मि गिहे दीसंत- बाहिरागारसुंदरे कलहं । सोउं परुप्परं महि-लियाण चिंतेउमाद्धो ॥ १७६ ॥ नूणं न तह बहुधणं, अत्थि गिहे इत्थ कलहकरणाओ । नासेइ दंतकलहेण, जं सिरी इय जणप्पयडं ॥१७७॥ मुट्ठे विहु थोवधणे, न हविस्सइ का वि मज्झ संपत्ती । न हि बिंदुणा भरिज्जइ, अइगरुएण वि नईनाहो ॥ १७८ ॥ इय तं मुत्तूण घरं, स वंकचूली महासमिद्धाए । गणियाइ देवदत्ताइ, मंदिरे झत्ति संपत्तो ॥ १७९ ॥ तो पाडिऊण खत्तं, कयचरणो चित्तरम्मभित्तिम्मि । वासभवणे पविट्ठो, अच्छिन्नजलंतदीवम्मि ॥१८०॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org