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________________ १३७ 70 षष्ठं धर्मदानयोग्यद्वारम् कह कहवि पुष्फचूलाए , विम्हियखित्तचित्तपसराए । उववेसिऊण सिज्जाइ, वंकचूली इमं भणिओ ॥१५५॥ बंधव ! विच्छायमुहो, निसाइ नीसेसपरियणविहीणो । तत्थ वि पच्छन्नु च्चिय, गिहे किमेवं पविठ्ठो सि ॥१५६॥ जम्हा तुह आगमणे, पडिभवणदुवारबद्धधवलधया । हल्लप्फलियजणाउल-मग्गा पल्ली इमा हुंता ॥१५७॥ किं वा धीरो वि तुमं, सुरगिरिवरसारसत्तकलिओ वि । सहस च्चिय मं अवलंबिऊण, एवं परुन्नो सि ॥१५८।। अच्चंताणिट्ठसमुब्भवे वि, गाढावयानिवडणे वि । दूरे परुन्नमन्नह, मुहरागो वि हु न ते भिन्नो ॥१५९॥ तो तेण तीइ कहिओ, सव्वो परियणविणासवुत्तंतो । परपुरिसबुद्धिवावारिया-ऽसिपडिखलणवत्ता वि ॥१६०॥ पभणइ य भइणि ! नाहं, एयं सोएमि परियणविणासं । तं दूमइ जं एवं, तुमं मए इह हया हुंता ॥१६१॥ इन्हि वि भइणि ! हियए , वइयरमिममेव सुमरमाणेहिं । अंसुप्पवाहमितं, खलिउं न तरामि नयणेसु ॥१६२॥ केण पुण कारणेणं, एवं काऊण पुरिसनेवत्थं । भाउज्जायाइ समं, भइणि ! पसुत्ता सि मम कहसु ॥१६३॥ तीए भणियं बंधव ! तुमयम्मि गयम्मि विजयजत्ताए । नच्चणकए नडा इह, पत्ता इय तेहिँ पुट्ठा हं ॥१६४॥ अच्छइ इह पल्लिवई, न वि त्ति तो चिंतियं मए एयं । जइ नत्थि त्ति कहिस्सं, ता गंतुं रिउनरो को वि ॥१६५।। सीमालाण कहिस्सइ, तुमम्मि पडिबद्धगाढवेराण । ते पुण लद्धवगासा, मा पल्लिं विद्दविस्संति ॥१६६॥ इय चिंतिय पडिभणियं, इह चिट्ठइ पल्लिमउडमाणिक्को । सयमेव वंकचूली, नवरं कज्जंतरासत्तो ॥१६७॥ 15 20 25 Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002558
Book TitleDharmvidhiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprabhsuri
PublisherBhadrankar Prakashan
Publication Year2009
Total Pages426
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Ritual, & Vidhi
File Size16 MB
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