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श्रीधर्मविधिप्रकरणम् को अज्ज एस कीणास-वयणमणुसरिउमिच्छइ वरागो । जो मइ जीवंते वि हु, मम भज्जं सेवइ अणज्जो ॥१४२।। किं वा इमा वि पावा, मम भज्जा चत्तलज्जमज्जाया । पुरिसाहमेण केण वि , सद्धि एवं पसुत्त त्ति ॥१४३॥ इत्थ ठियाणि वि दुन्नि वि, इमाणि खंडेमि खग्गघाएण । अहवा लोयविरुद्धं, इत्थिवह कह करेमि अहं ॥१४४॥ जम्हा उक्कडपरचक्ककरिघडाडोवविहडणपयंडो । बहुसमरपत्तकित्ती, मह खग्गो किं न लज्जेइ ॥१४५॥ ता इक्कं चिय एयं, हणेमि इय जाव देइ नो घायं । ता चिरगहियाभिग्गह-मणुसुमरइ झत्ति स महप्पा ॥१४६।। तत्तो नियत्तिऊणं, सत्तट्ठ पयाइँ जाव पहरेइ । ता उवरि पीढिखलणे, खग्गेण खडक्कियं तत्थ ॥१४७॥ अह भाउज्जायादेह-भारपीडिज्जमाणबाहाए । विहडंतनिविडनिद्दा-भराइ भगिणीइ तं सुच्चा ॥१४८॥ चिरकालं जीवउ मज्झ, भाउगो वंकचूलिनामो सो । सज्जसवसप्पबुद्धाइ, तीइ इय जंपियं सहसा ॥१४९।। आयन्निऊण एय, विचिंतियं वंकचूलिणा तत्तो । अहह कहं सा एसा, मम भगिणी पुप्फचूल त्ति ॥१५०।। जीए अच्चंतं गाढ-नेहवसओ ममं सरंतीए । सुहिसयणजणणिजणगा-इणो वि पुव्वं परिच्चत्ता ॥१५१॥ हा कहमेयमियाणिं, हणिऊण निययजीवियब्भहियं । अइगरुयपावकारी, जीवंतो हं सयमलज्जो ॥१५२॥ कत्थ व पसत्थतित्थे, गयस्स केण व तवोविसेसेण । हुंता सुद्धी भइणीविणास-जणियाउ पावाउ ॥१५३॥ इय चिंतिऊण भइणीइ, कंठमासज्जमन्नुभरविहुरो । रोविउमारद्धो नियय-पावचिट्ठाइ संलत्तो ।।१५४॥
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