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पञ्चमं सद्धर्मदायकद्वारम्
पिऊणा वृत्तं अंधो, पुत्त ! तुमं किं करेसि रज्जेण । सो जंपइ मज्झ सुत्तो, करिस्सई तो निवो भणइ ||३३३|| वच्छ ! कया तुह पुत्तो, जाओ सो आह संपई देव ! | तत्तो पियागहेणं, नामकयं संपई चेव ॥ ३३४॥
अह वित्तम्मि दसाहे, रन्ना आणाविऊण सो तत्थ । ठविओ नियरज्जपए, समत्थसामंतजुत्तेण ॥ ३३५॥ कालक्कमेण तत्तो, स संपई पयडसासणो जाओ । घित्तुं अणारिए वि हु, देसे साहेइ भरहद्धं ॥ ३३६॥ इत्तो चिय विहरंता, सिरिअज्जसुहत्थिसूरिणो पत्ता । जीवंतसामिपडिमा, वंदणवडियाइ उज्जेणि ॥३३७|| संपइराया वितया, पाडलिपुत्ताउ आगओ तत्थ । पासायस्सुवरि ठिओ, पुरिलच्छि पिच्छए जाव ॥ ३३८ ॥ ता अज्जसुहत्थिगुरुं, पिक्खइ नयरीइ रायमग्गम्मि । तत्तो चिंतइ राया, कत्थ विपुव्वं पिदिति ॥ ३३९॥ ईहापोहगवेसण - परो य सो निवडिओ महीवीढे । आसन्नपरियणेणं, सित्तो चंदणरसाईहिं ॥ ३४० ॥ उवलद्धचेयणो अह, सपुव्वजाई खणेण संभरइ । तो विहियगरुयउवयार-सरणविप्फुरियबहुमाणो ||३४१॥ सा मंतमंतिभडकोडि-परिगओ गुरुसमीवमुवगंतुं । पुच्छइ नमिउं भत्तीइ, किंफलो नाम जिणधम्मो ॥ ३४२ ॥ सग्गापवग्गफलओ, जिणधम्मतरु त्ति जंपियं गुरुणा । सामाइयस्स किंफल - मिइ पुट्ठे भणइ गणहारी || ३४३ ॥ अव्वत्तं सामइयं, रज्जाइफलं ति पच्चयम्म दढे । संजाए तो राया, एमेव इमं ति मन्ने ॥ ३४४॥ पच्चभिजाणसि सामिय ! कोई अहयं ति जंपइ नरिंदो ? | तो विम्हइओ सूरी, सुओगेण इय भइ ॥ ३४५॥
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