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________________ ११२ 10 श्रीधर्मविधिप्रकरणम् इय सोउं चाणक्को, पभणइ भयवं ! भवन्नवावडिओ। तुब्भेहिँ समुद्धरिओ, चोयणपेएण अहमिन्हि ।।२४२॥ तो सुद्धेसणिएणं, अहापवत्तेण भत्तपाणेण । कारिज्जह अणुदियहं, अणुग्गहं मज्झ गेहम्मि ॥२४३॥ खमियव्वं च असेसं, जमुवालंभेण खेइया तुब्भे । इय भणिउं चाणक्को, संपत्तो निययआवासे ॥२४४॥ अह चिंतिउं पवत्तो, जइ को वि हु चिल्लय व्व अद्दिस्सो । सत्तुनरो देइ विसं, निवस्स ता सुंदरं न इमं ॥२४५॥ किं च इमो पुव्वं पि हु , विसकन्नपओगओ कह वि छुट्टो । ता तह करेमि संपइ, विसाओ जह होइ नेव भयं ॥२४६॥ इय चिंतिय चाणक्को, दावेई चंदगुत्तनरवइणो । सह आहारेण विसं, पइदिणमहियाहियकमेण ॥२४७॥ इतो य धारिणीए , रन्नो देवीइ गब्भभावाओ । उप्पन्नो डोहलओ, सा चिंतइ एवमणुदियहं ॥२४८॥ धन्नाउ कयत्थाओ, ताओ महिलाउ जाउ सह पइणा । भुंजंति एगथाले, एगासणसन्निविट्ठाओ ॥२४९॥ किं ताण जीविएणं, विहलं चिय ताण गब्भउव्वहणं । जाउ नियभत्तुणा सह, भुंजंति न एगथालम्मि ॥२५०॥ ता तेण दोहलेणं, अपुज्जामाणेण दुब्बलसरीरा । सिरिचंदगुत्तरन्ना, दिट्ठा तह जंपिया एवं ॥२५१॥ किं तुज्झ नेव पुज्जइ, मइ साहीणे वि पुहइनाहम्मि । अहवा कस्स वि दुव्वयण-सल्लपरिपीडिया सि तुमं ॥२५२॥ अह धारिणी पयंपइ, न हु एवं देव ! कारणं किं तु । गब्भाणुभावजणिओ, मह वट्टइ दोहलो एसो ॥२५३।। जइ नाह तए सद्धि, अहयं भुंजामि एगथालम्मि । तो भणइ निवो चिट्ठसु , वीसत्था पूरइस्से हं ॥२५४।। 15 20 25 Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002558
Book TitleDharmvidhiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprabhsuri
PublisherBhadrankar Prakashan
Publication Year2009
Total Pages426
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Ritual, & Vidhi
File Size16 MB
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