________________
10
पञ्चमं सद्धर्मदायकद्वारम्
तत्तो रूट्ठो राया, तं कड्ढावेइ धरियपाएसु । तो उट्ठिय चाणक्को, कुणइ पइन्नं इमं घोरं ॥७३॥ "कोशैश्च भृत्यैश्च निबद्धमूलं, पुत्रैश्चमित्रैश्च विवृद्धशाखम् । उत्पाट्य नन्दं परिवर्त्तयामि, महाद्रुमं वायुरिवोग्रवेगः ॥७४॥ नन्दकुलकालभुजगी, मत्कोपकृशानुबहलधूमाली । शत्रूच्छेदासिलता, बद्धास्ति शिखा प्रतिज्ञार्थे" ॥७५॥ जइ नंदवंसमेयं, न वि उम्मूलेमि मूलओ चेव । ता सीससिहाबद्धं, एवं गठिं न छोडेमि ॥७६।। जं तुह पिउणो रुच्चइ, तमिह करिज्जासु इय भणंतेहिं । पुरिसेहिं अद्धचंद, दाऊण तओ स निव्वूढो ॥७७।। निग्गंतूण पुराओ, चिंतइ अइकोवपरवसेण मए । घोरा कया पइन्ना, नित्थरियव्वा कहं इन्हिं ॥७८॥ कह वा साहससहिओ, पावइ हियइच्छियं न संदेहो । जेणुत्तमंगमित्तेण, राहुणा कवलिओ सूरो ॥७९॥ इय चिंततो एसो, जा अच्छइ किच्चकज्जवामूढो । तो तस्स पुव्वनिसुयं, संभरियमिमं सुगुरुवयणं ।।८०॥ जह बिंबंतरिएणं, होयव्वं राइणा मए नूणं । न य तेसि महासत्ताण, भासियं अन्नहा होइ ॥८॥ अविचलइ सेलराओ अवराए उग्गमिज्ज दिणनाहो । न य होइ अन्नहा तं, विसिट्ठनाणीहि जं दिटुं ॥८२॥ ताव गवेसामि अहं, कत्थ वि बिंबं सुलक्खणोवेयं । अह नंदमोरपोसग-गामं गच्छेइ चाणक्को ॥८३।। कयपरिवायगवेसो, तत्त पविट्ठो य मयहरगिहम्मि । सो पिक्खइ तस्स गिहे, अइउव्विग्गं सयणवग्गं ॥८४॥ अह तेहि पुच्छिओ सो, परिवायग ! किं पि जाणसि निमित्तं । 25 चाणक्केणं भणियं, सव्वं जाणामि ता पुट्ठो ॥८५।।
15
20
20
Jain Education International 2010_02
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org