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________________ पञ्चमं सद्धर्मदायकद्वारम् धोवेइ कोइ पाए, सुगंधतिल्लेहिँ को वि मक्खेइ । नाणाविहेहिँ उव्वट्टणेहिँ उव्वट्टण को वि ॥४७॥ न्हावेइ को विको वि हु, वत्थालंकारमाइ अप्पेइ । को विविलेवणमाणइ, किं बहुणा इत्थ भणिण ॥ ४८ ॥ भोयणसयणाईसु वि, सम्माणिज्जंति ताउ सव्वाओ । तह विविहुल्लावेहिं, संभासिज्जति सयणेहिं ॥ ४९॥ तं चाणक्ककलत्तं, अत्थविहीणं ति काउ नवि को वि । वयणेण वि संभासइ, कारिज्जइ किंतु गिहकम्मं ॥५०॥ अह वित्तम्मि विवाहे, नाणाविहवत्थभूसणाइयं । दाउं विसज्जियाओ, इयरसुयाओ सबहुमाणं ॥५१॥ तीसे पुण पियरेहिं, वत्थाईएहिँ अप्पउवयारो । विहिओ तो सा चितइ, धिद्धी दारिद्दमाहप्पं ॥५२॥ मायापि वि जत्थ य, मं एवं परिभवंति चिंतित्ता । अट्टदुहट्टोवगया, समागया भत्तुणो गेहे ॥ ५३ ॥ दिट्ठा चाणक्केणं, किं एसा पिउगिहाउ पत्ता वि । लक्खिज्जइ कसिणमुहा, मग्गे मुसिय व्व चोरेहिं ॥५४॥ तो भइ पई भद्दे, कसिणमुहा कीस सा न जंपेइ । बालु व्व वारंवारं जा पुच्छइ एस ता भणइ ॥ ५५ ॥ नियमायापियरेहिं, परिभविया नाह ! अंकदासि व्व । तुज्झ दरिद्दस्स करे, लग्गा वत्थाइहीण त्ति ॥५६॥ तं सोउं चाणक्को, तीसे, खेयं विभागयंतु व्व । चितइ मणम्मि एयं, अत्थो सव्वत्थ गोरविओ ॥५७॥ "जाई विज्जा रूवं, तिन्नि वि निवडंतु कंदरे विवरे । अत्थु च्चिय परिवड्डउ, जेण गुणा पायडा हुंति ॥ ५८ ॥ झीणविहवो न अग्घइ, पुरिसो विन्नाणगुणमहग्घो वि । धणवंतो पुण नीओ वि, गउरखं लहइ लोयमि ॥५९॥ Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only ९७ 5 10 15 20 25 www.jainelibrary.org
SR No.002558
Book TitleDharmvidhiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprabhsuri
PublisherBhadrankar Prakashan
Publication Year2009
Total Pages426
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Ritual, & Vidhi
File Size16 MB
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