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________________ धर्मदेव-कूर्मापुत्र चरित्र भावधर्म का माहात्म्य १०५ सूर्यसमान जगदुत्तम तीर्थंकरभगवन्त ने वहाँ से अन्य विहार किया । १८८. अब सातवें दिन, कूर्मापुत्र केवली नें, गृहस्थवेष छोड़, मुनिवेष धारण किया । 'मुनिवेष ही क्लेशों का विशेषत: विजय करता १८९. मुनिवेष के स्वीकार करते ही कूर्मापुत्र केवली को उपदेश हेतु बेठने के लिए सुवर्ण कमल की, देवों ने रचना की; केवलज्ञान के कारण, सम और निर्मल चित्त, केवलिप्रवर श्री कूर्मापुत्र मुनि ने धर्म उपदेश देना आरम्भ किया....। १९०. दान-शील-तप और भाव के चारों प्रकार के धर्म में से _ 'भावधर्म' एक ऐसा श्रेष्ठ औषध है जो भावरोग कर्मों को दूर करने में अनन्यतम है । अतः परमधर्म है । १९१-१९२. जैसे सब प्रकार के दानों में अभयदान, ज्ञानों में केवलज्ञान, ध्यानों में शुक्लध्यान श्रेष्ठ है । वैसे ही भावधर्म सर्वप्रकार के धर्मों में श्रेष्ठ है । (१९२) तथा कर्मों में मोहनीय कर्म, इन्द्रियों में जिह्वेन्द्रिय, और व्रतों में ब्रह्मचर्यव्रत (प्रभावशाली है) इसी तरह-भावधर्म ही सर्वधर्मो में परम प्रभावशाली है। १९३. 'कोई एक भव्यात्मा को तो-गृहस्थ अवस्था में रहते हुए भी, केवल भावधर्म के कारण ही, केवलज्ञान प्राप्त होता है । इस बाबत में हम ही उदाहरण है। १९४. कूर्मापुत्र केवली की धर्मदेशना सुननें सें, कूर्मापुत्र के सत्यवन्त माता-पिता ने प्रतिबोध होने से, चारित्र का स्वीकार और शुभ पालन कर के, शुभगति प्राप्त की । Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002556
Book TitleSirikummaputtachariam
Original Sutra AuthorJinmanikyavijay
AuthorChandanbalashreeji
PublisherBhadrankar Prakashan
Publication Year2009
Total Pages194
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size6 MB
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