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________________ ८९ धर्मदेव-कूर्मापुत्र चरित्र भावधर्म का माहात्म्य न विद्या समर्थ है न तो औषध, • न पिता समर्थ है, न तो बन्धुजन, • न पुत्र समर्थ है, न तो इष्टदेव, न प्रेमाई माता समर्थ है, न तो धन, • न स्वजन समर्थ है, न तो सेवक परिजन । अरे ! शारीरिक बल भी समर्थ नही है । ओर तो ओस्-देवो-दानवो और उनके इन्द्र भी समर्थ नहीं है। ५४. केवलीभगवन्त के ऐसे वचन सुनकर व्यन्तरी, मानो सर्वस्व चुराया गया हो-मन खिन्न हो से अपने भवन में चली गई । ५५-५६. कुमार ने व्यन्तरी को रजो-गम में डूबी हुई देख, मीठी जवान से पूछा-तुम उदास क्यों हो ? क्यां किसी ने तेरा दिल दुभाया है? क्यां किसी ने तेरी बात नहीं मानी है? अथवा मुझ से कोई अपराध हो गया है ? तुम उदास क्यों हो ? ५७. इतना पूछने पर भी मन ही मन ज्यादा उचाट से मौन रहती है, जब कुमार ने गाढ़ अनुरोध कीया-तब बताया कि५८. हे स्वामि ! मैनें 'आपकी अल्प आयु को अवधिज्ञान से जाना, और 'आयु बढ़ाना ना मुमकिन है' ऐसा केवलीभगवन्त से सुना, (५९) यह ही वजह मेरे तन-मन में चुभती है। यह तो विधाता की वक्रता ही है-मैं आपका विरह कैसे झील पाऊँगी ? ६०-६१. तब आश्वस्त करते हुए कुमारने यक्षिणी को कहा-तू मनमें तनिक भी खेद मत कर । चूँकि यह बात तो स्पष्ट है कि यह जीवन जल के बुलबुले की भाँति अस्थिर है; तो स्थिरता की आशा कौन रखें ? (६१) हे प्रिये अगर तुझे मुझ से प्रेम है-तो मुझे केवलीभगवन्त के पास ले जा । जहाँ मैं अपना आत्म कल्याण कर पाउँ । ___Jain Education International 2010_02. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002556
Book TitleSirikummaputtachariam
Original Sutra AuthorJinmanikyavijay
AuthorChandanbalashreeji
PublisherBhadrankar Prakashan
Publication Year2009
Total Pages194
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size6 MB
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