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धर्मदेवकूर्मापुत्र चरित्र भावधर्म का माहात्म्य
८३ नाराच" (ऐसा सार्थक जैन पारिभाषिक) नाम वाला था । और कसोटी के पाषाण पर घीसने पर सोने की भाँति चमक रहा था। यह इन्द्रभूतिजी बड़े तपस्वी थे-'छट्ठ के पारण में छ?' [दो दिन उपवास + पारणा + दो दिन का उपवास] करते थे, घोर ब्रह्मचारी थे । शरीर की साज-सजावट से परे थे । १४ पूर्वो का श्रुतज्ञानवाले थे, उपरान्त मतिज्ञान-अवधिज्ञान और मन:पर्यवज्ञान वाले थें । ५०० शिष्यो के गुरु थें। ऐसे 'अप्रतिम मुनि' इन्द्रभूतिजी प्रभु को पूछते हैं कि 'प्रभो ! यह कूर्मापुत्र कौन है, गृहस्थ अवस्था में रहते हुए भी, उनको केवलज्ञान प्राप्त कैसे हुआ ? ऐसी कौन सी 'भावना' है, कि जिसके कारण, अनन्त, अनुपम, व्याघात-आवरण रहित और परिपूर्ण सम्पूर्ण केवलज्ञान प्राप्त हुआ ? तब श्रमणभगवान श्रीवर्धमान जिन अमृत समान, योजनगामिनी वाणी से प्रत्युत्तर देते हुए फरमाते हैं, कि-हे इन्द्रभूति गौतम ! यह आश्चर्यकारी
कूर्मापुत्र का चरित्र, अब सावधान होकर सूनो । ॥ कूर्मापुत्र चरित्र प्रारम्भ : पूर्वभव में राजकुमार दुर्लभ ॥ ९-१०. जम्बूद्वीप के, भरतक्षेत्र में मध्यखण्ड (मध्य में आये हुए भू
भाग) में दुर्गमपुर एक बड़ा विश्वश्रेष्ठ नगर था । द्रोण वहाँ का राजा था, उसका प्रताप इतना था, मानो उसके आगे सूरज भी निस्तेज हो गया हो । शत्रुगणों नष्ट हुए थे । अत एव उसका
राज्य 'निष्कंटक' बना हुआ था । ११. शंकर को पार्वती थी, विष्णु को लक्ष्मी थी, इसी तरह द्रोणराजा
___ को 'द्रुमा' नाम की पटरानी थी। १२-१३. राजा(द्रोण) रानी(द्रुमा) को, दुर्लभ नामका पुत्र था, उसका
रूप, कामदेव से भी बढ़ कर था, वह राजकुमार लोगों का
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