________________
२४८
जंबु रेयम् समभावो सामइयं सव्वेसिं एत्थ होइ जीवाणं ।
सावज्जाण य जोगाण वज्जणं होइ सामइयं ॥६९७॥ [ ] भणियं च- "जो समो सव्वभूएसु तसेसु थावरेसु य ।
तस्स सामाइयं होइ इइ केवलिभासियं" ॥६९८॥ [ ] अहव कसायाण समे सम्मत्तणचरणणाणलाभो जो । सामइयं ति तयं इह भन्नइ भणियं जिणिंदेहिं ॥६९९॥ जइ अवरेण समाणं केण वि अह दायगं विवाओ वा । नत्थि हु तया घराओ काउं गच्छेज्ज सामइयं ॥७००॥ पंचसमिओ तिगुत्तो विगयकसाओ विमुक्कभयहासो । परिमुक्कपरममत्तो जाइ स पावं परिहरंतो ॥७०१॥ अह अत्थि को वि दटुं अंछाअंछि करेज्ज जो पंथो । ता नियमा कायव्वं गंतूर्ण तत्थ सामइयं ॥७०२॥ मा गहियमंतराले भज्जीही गाहिएण केणावि । ता गंतूणं कुणइ हु दुविहं तिविहेण जा इच्छा ॥७०३॥ पविसंतो कणइ निसीहियं ति जा अप्पयं निसिद्धेइ । पावाणं कम्माणं नियमा जा पज्जुवासेइ ॥७०४॥ आगंतूण य पच्छा करेइ सामाइयं तओ विहिणा । अरिहंते नमिउं चिय साहुजणं वंदिउं सम्मं ॥७०५॥ कड्ढेइ तओ सुत्तं करेमि भंते ति एवमाईयं । आलोएइ गुरूणं इरियावहियं पडिक्कमिउं ॥७०६॥ वंदइ तओ य साहू विणएणं वंदिऊण आयरियं । पुच्छइ पढइ सुणेइ य झायइ झाणं निसिद्धिप्पा ॥७०७॥ सामाइयंमि [य] कए जइ कह वि करेज्ज सावओ कालं । ता सो हु जहन्नेण य सोहम्मे होज्ज देवो त्ति ॥७०८॥
Jain Education International 2010_02
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org