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भास्कर' ग्रंथमें निर्देश किया है कि, अन्य कार्योमें लाखों रुपये खर्चनेवाले इन जैनोंमें विद्याके प्रति अरुचि एवं सम्यक ज्ञानकी अज्ञानताका व्याप ही मुख्य है। इस सूक्ष्मताकी ओर केवल अंगूलीनिर्देश ही नहीं किया लेकिन इसके उद्धारके लिए शिक्षाके प्रचार एवं ज्ञान भंडारोंकी व्यवस्थादि रूप चिकित्सा भी दर्शायी है।
जैनोंके साधर्मिक वात्सल्यका विश्लेषण करते हुए “जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर" ग्रंथमें मार्गदर्शन करते हुए आप लिखते हैं कि- "श्रावकका बेटा धन हीन या बेरोजगार हों उसे रोजगारीमें लगाना या उसे जिस कार्यमें सिहत हों-आवश्कता हों-उसमें मदद करना सच्चा साधर्मिक वात्सल्य है। साधर्मिकोंको सहाय करनेकी बुद्धिसे जिमाना (भोजन कराना) यह सच्चा साधर्मिक वात्सल्य है अन्यथा वह 'गधे खुरकनी' मानी जायगी। ८२ इस तरह समाजकी चेताको जागरूक और स्वस्थ बनानेके लिए आपके प्रयत्न निरंतर होते रहते थे। धर्म सद्भावके जीवन्त प्रतीक-आपका जीवन ज्ञान-ध्यान लीन और आपका आचार्यत्व लोकमंगलकी भावनासे प्रदीप्त था।
युग निर्माणकी महत्त्वपूर्ण कुंजी घूमाते हुए आपने सामाजिक एकताका ताला खोल दिया। ऐक्यमें छिपी प्रचंड ताकातसे पूरे समाजको अभिज्ञ किया। श्वेताम्बर समाजके अखिल भारतीय संगठनको दृष्टिगत रखते हुए आपने सुरतके चातुर्मास-वि.सं. १९४२-में 'दि जैन एसोशियेशन ऑफ इन्डिया, बम्बई' के कार्यकर्ताओंको अपने सहयोगका संपूर्ण विश्वास दिलाया था। इसके अतिरिक्त अमृतसर-श्री जिनमंदिरकी प्रतिष्ठाके अवसर पर आपने सबको उद्बोधित करते हुए कहा कि, “पारस्परिक एकतामें लाभ है और इसी में शक्तिका रहस्य है ।.........स्मरण रहें, शास्त्रकारोंने श्री संघका पद बहुत ऊँचा किया है । श्री संघके सामने प्रत्येकको मस्तक झुका देना चाहिए । धनवान और शक्ति सम्पन्न भाइयोंका परम कर्तव्य है कि, वे अपने साधनहीन भाइयोंकी यथासंभव सहायता करें । गुजरात-सौराष्ट्रके भाइयोंने पंजाबमें मंदिर निर्माण और पुस्तक भंडार स्थापित करने में सहायता देकर एक अनुकरणीय आदर्श आपके सम्मुख उपस्थित किया है ।"८३ उसी प्रतिष्ठावसर पर आपने धार्मिक एवं सामाजिक महोत्सवों या प्रसंगों पर होनेवाले आडम्बर, झूठे दिखावे आदिमें होनेवाले फिजूल खर्चको रोकने के लिए भी प्रेरणा दी और सादगी एवं संयमितताके पथ पर कदम बढ़ाने के लिए सभीको आकृष्ट किया।
एक कदम आगे बढ़कर तत्कालीन सामाजिक दूषण-बाल विवाह और विधवा विवाहको दर्शित करते हुए आगमिक स्पष्टीकरण दिया हैं- “आचार दिनकर"-ग्रन्थमें आठसे ग्यारह वर्षकी लडकीके विवाहको कथित किया है, वह प्रायः लौकिक व्यवहारके अनुसार है । जैनागमोंमें तो 'जोव्वणगमणमणुपत्ता' इति वचनात् वर कन्या यौवनको प्राप्त हों तब विवाह करना लिखा है । 'प्रवचन सारोद्धार में सोलह वर्षीय कन्या और पचयीस वर्षीय पुरुषके संयोगसे उत्पन्न संतान बलिष्ठ बतायी है । इत्यादि मूलागमसे तो बाल लग्न और वृद्ध विवाहका निषेध सिद्ध होता है।"८४
होशियारपुरके 'जैन स्वर्णमंदिर की प्रतिष्ठाके सुअवसर पर भी आपने फरमाया “बाल विवाह और पर्देकी कुप्रथा मुस्लिम शासनकालमें प्रचलित हुई। इसके पहले इसे कोई जानता न था। अब वह समय व्यतीत होचूका है। इसलिए उन प्रथाओंको भी विदा कर देना उचित है। बाल विवाह सर्वनाशका कारण है। इससे मस्तिष्क और शरीरका विकास रूक जाता है-व्याधियाँ होती हैं। जबतक वीर्य परिपकव न हों, पढाई समाप्त न हों, विवाह न करें"।
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