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आपके पुण्य प्रचयके पीठबल एवं एकसे बढ़कर एक उत्तरदायित्वपूर्ण शासनसेवाके उत्तम अवसरोचित कार्योंसे जिनशासनका सूर्य अपनी पूर्ण शान-शौकतसे चमकने लगा। 'सोने में सुहागे' सदृश जोधपुर निवासियोंने आपको आग्रह पूर्वक विशिष्ट बिरुद 'न्यायांभोनिधि' से नवाजित किया। तबसे आपने 'न्यायम्भोनिधि जैनाचार्य श्रीमद्विजयानंद सुरीश्वरजी म.सा. के शुभ नामसे प्रसिद्धि पायी।५९
___ परमप्रिय मातृभूमि पंजाबकी पुकार आपको बरबस अपनी ओर खिंच रही थी। 'चकोरको चंद्रिकाकी कशिश' या 'कमलिनी को चंद्रकी आश' समान ही श्रीमद्विजयानंद सुरीश्वजीकी हृदयतंत्रीका तालमेल पंजाबके भाविक भक्तों के दिलसे जुड़ा हुआ होनेके कारण-दिनभर चारा चरकर शामको निजस्थान पर पहुँचने के लिए लालयित रहनेवाले पशु-पक्षी सदृश आचार्यदेव भी पंजाबकी ओर उमड़ते हुए भावोद्रे कके साथ खिंचे चले आते हैं।
पंजाबी वनराज गुजरात-मारवाड़में गर्जते हुए और सब पर अपनी धाक जमाते हुए, सभी पर अपना रुआब छोड़कर वापस पंजाबकी ओर मूड़ता है। अब आपका लक्ष्य है बाल-मानस भक्तों की सुध लेकर उनको दिलोजानसे रत्नत्रयीकी आराधनामें स्थिर करना। जैसे, अत्यन्त कष्ट झेलते हुए प्रसुत संतान के पालन पोषण व शिक्षा संस्कारके प्रति ममतामयी माता-स्नेहकी साक्षात् प्रतिमा-उदासीन नहीं रह सकती, वह तो हर प्रकारसे प्रयत्न करती ही रहती है अपने अंगजके सर्वांगिण विकासका और वृद्धिका-तुष्टि, पुष्टि, संतुष्टिका।
यह समय था, जब जैन दिवाकर श्रीमद्विजयानंद सुरीश्वरजी म.सा., अपने प्रतिभापूर्ण प्रभावकी प्रखर रश्मियाँ फैलाकर सर्वत्र सर्वको तेजोमयता प्रदान कर रहे थे। आपके पंजाबमें पदार्पण होते ही पंजाबी-जैन समाजके उद्धारके विभिन्न कार्यक्षेत्रोंमें संचरणके चक्र गतिमान हुए। तदन्तर्गत रत्नत्रयीकी आराधना करके करवाके उनका सर्वदेशीय सम्मार्जन और संवर्धन करके रत्नत्रयीकी आराधनाको उन्नतिकी ओर अग्रसर किया। सम्यक दर्शनको निर्मलतर करते हुए आपने श्री जिन-प्रतिमा एवं श्री जिन-मंदिरों के अंजनशलाका और प्रतिष्ठा महोत्सवके कार्यक्रम विभिन्न स्थानो पर आयोजित करवाये-यथा-वैशाख शुक्ल-६, वि.स. १९४८ को अमृतसरमें भगवान श्री अरनाथजीकी, एवं उसी वर्ष-१९४८ बसन्त पंचमी को होशियारपुरमें भगवान श्री वासुपूज्यजीकी १ और मृगशिर शु. १५-१९५२को अम्बालामें भगवान श्री सुपार्श्वनाथजीकी६२ प्रतिष्ठायें बड़ी धूमधामसे करवाई, साथ ही साथ, जीरामें १९४८ मौन एकादशी के दिन श्री चिन्तामणी पार्श्वनाथजीकी;६३ १९५१-माघ शु.१३को पट्टीमें भ. श्री मनमोहन पार्श्वनाथजी एवं १९५३ वैशाख शु. १५को सनखतरामें श्री आदिनाथजी५ भ. आदि अन्य अनेकों जिनबिम्ब समेत अंजनशलाका-प्रतिष्ठा करवायी। सम्यक् ज्ञानकी विशुद्धिके लिए १९४८में पट्टीमें 'चतुर्थ स्तुति निर्णय', 'श्री नवपदजी पूजा'; १९४९में अमृतसरमें 'चिकागो प्रश्नोत्तर'; १९५०में जंडियालामें 'श्री स्नात्रपूजा'; १९५१में जीरामें 'तत्त्व निर्णय प्रासाद', 'ईसाई मत समीक्षा', 'जैन धर्मका सवरूप६६ आदि अनेक ग्रंथोकी रचना करके हिन्दी जैन
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