________________
ईश्वरकी मान्यतासे ईश्वरको प्राप्त अनेक कलंकों का ब्यौरा देकर 'ईश्वर फल प्रदाता का भी इन्कार करते हुए स्व-स्व कर्मानुसार (काल - स्वाभाव नियति पूर्वकर्म प्रयत्न) पांच निमित्त पाकर जीवका स्वयं कर्म फल भुगतना स्पष्ट किया है। ईश्वर देहसे सर्वव्यापी नहीं ज्ञानसे सर्वव्यापी (सर्वज्ञ) है। सृष्टि सर्जनके प्रमुख कारण पांच निमित्त कारण और उपादान कारणोंका समवाय सम्बन्धसे मिलन है। पृथ्वी आदि उपादान कारण नित्य होते हैं, अतः वे अनादि अनंत होनेके कारण उनका कर्ता कोई नहीं हो सकता।
यहाँ अन्यवादियों से समन्वयकी भावना प्रदर्शित करते हुए आप लिखते हैं- “यदि पदार्थोंकी शक्तियों का नाम ही ईश्वर है-ऐसा माना जाय तब ऐसे ईश्वरको जगत्कर्ता मानना जैन मतसे विरुद्ध नहीं । ..वर्तमान पदार्थविद्यानुकूल अन्य मतवालोंके ईश्वरको जगत्सृष्टा मानना अप्रमाणिक है । कोई विद्वज्जन 'पदार्थविद्यानुकूल जगत्कर्ता ईश्वर' जिस युक्ति द्वारा सिद्ध करेंगें सो युक्ति देखकर सत्यासत्यका विचार करके हमभी सत्यका निर्णय करलेगें।" -- इस प्रकार ईश्वर विषयक दार्शनिकों की मान्यताकी भिन्नाभिन्नताको और वर्तमानकालीन ईश्वर विषयक प्ररूपणाओंका विवरण देते हुए मनुष्यका स्वभाव- लाक्षणिकता न्यूनता आदिका विवेचन किया है। अंतमें कौनसे अठारह दूषणको दूर करके आत्मा परमात्मा कैसे बनती है इसे 'हीरा के दृष्टान्तसे समझाया है। प्रवाहसे अनादि संसारका अंत नहीं। अनादिकालीन मोक्षगमन होने पर भी विश्व जीवोंसे शून्य न होनेका कारण, जीवोंकी अनंतता दर्शाकर आकाशकी अनंततासे तुल्यता प्रस्तुत करके जैनमतकी विशिष्टताकी पुष्टि की है। इसके साथ ही पुनर्जन्म विषयक विशिष्ट सिद्धान्तों का भी अनेक उदाहरणों द्वारा प्रतिपादन किया गया है।
*****...
-
सर्वज्ञ के वलज्ञानीके ज्ञानमें प्रत्यक्ष और कार्यानुमानसे सत्य, मुख्य आठ और उत्तर प्रकृति १५८ (ज्ञानावारणीय-५, दर्शनावरणीय ९, वेदनीय-२, मोहनीय २८, आयुष्य ४, नाम१०३, गोत्र. २, अंतराय ५) कर्मानुसार ही चित्रविचित्र जीव जगतकी रचना होती है ये कर्म कब और कैसे फल देते हैं इसका संक्षिप्त परिचय देते हुए इन कर्म-धर्म-आत्मादिको न मानने वाले चार्वाकादि नास्तिक दर्शनोंका शास्त्राधारित अनेक युक्त युक्तियोंसे खंडन किया है 'मूर्तिपूजा विरोधीओं द्वारा किया जाना पुस्तकादिका सन्मान, ताबूत, मक्का हजादिको भी 'स्थापना निक्षेपा' रूप मूर्तिपूजाका ही अंग सिद्ध किया है। मनुष्य और ईश्वरका, उपदेश्य और उपदेशक संबंध होने से उन्हें परमोपकारी स्वरूप मानकर उनके साक्षात्कार के लिए भी उनकी पूजाको आवश्यक कर्तव्य दर्शाते हुए जलादि अष्ट प्रकार एवं अन्य अनेक प्रकार के द्रव्योपचार से द्रव्य भावपूजा, तीर्थयात्रा, रथयात्रादिसे धर्म प्रभावना वृद्धिका स्वरूप अभिव्यक्त किया है। मनुष्यमें धर्म-धर्मीका अविष्वक्रमात संबंध मिश्रीकी मिठास सदृश आरोपित करते हुए, ईश्वर के साथ भी उनका सन्मार्ग प्रदर्शक ( रहनुमा) - दुर्गतिपात रक्षक के अतिरिक्त अन्य संबंध अनुरूप होनेका इन्कार-सकारण किया गया है।
7
अंतमें धर्महेतु- धर्मपुरुषार्थको सूचित करके जैनधर्मानुसार धर्माराधनाके दो भेद- श्रावकधर्म
Jain Education International
-
188
For Private & Personal Use Only
-
www.jainelibrary.org