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________________ साधर्मिक वात्सल्यका स्वरूप-जैनमतके कम प्रचार-प्रसारके कारण-अन्य मतावलम्बियों में प्राप्त पंच परमेष्ठिके स्वरूपकी मान्यताकी विवक्षा---अनादि अनंत द्रव्यों का स्वरूप---पृथ्वी आदि सर्व एक जीवाश्रयी (पर्यायरूप) अनित्य और असंख्य जीवाश्रयी (प्रवाह रूपसे) नित्य-रूप, उपदेश, क्रियादिकी अपेक्षा और धर्मोपदेशककी योग्यायोग्यतानुसार गुरुका स्वरूप वर्णन-धर्मके प्रकारवनकी उपमासे (कंथेरी, खेजडी, जंगली, नृपवन और देवनन)-चेटक, संप्रति, कुमारपाल आदि सदृश राजा आदिभी गृहस्थ योग्य जैन धर्मपालन करने में समर्थ-कुमारपालके बारहव्रत पालन और नियमों का स्वरूप और अंतमें ग्रन्थकारके अभिप्रायसे तत्कालीन हिन्दुस्तानमें प्रचलित पंथ या मतों के क्रमका वर्णन किया गया है। निष्कर्ष--इस प्रकार इस 'गागरमें सागर' जैसे छोटे से ग्रन्थमें जैन-जैनेतर धर्मों का स्वरूप, एवं कर्मादि सिद्धान्तों की प्ररूपणा, सर्व मतोत्पत्ति आदि द्वारा ऐतिहासिक तथ्योंका-आदि अनेक प्रकारसे बाल जीवों की जिज्ञासा पूर्ति हेतु निरूपण करके ग्रन्थकारने सामान्य जन जीवनमें व्याप्त अनेक भ्रामक मान्यता और जिज्ञासाकी पूर्तिका सफल प्रयत्न किया है। ____ -: चिकागो प्रश्नोत्तर :ग्रन्थ परिचय-किसी भी रचनाका प्रादुर्भाव तीन प्रकारसे होता है-अंतःस्फूरणा, प्रेरणा एवं आवश्यकता। 'चिकागो प्रश्नोत्तर' ग्रन्थकी रचना आवश्यकताको लेकर की गई है यथा-(३४-१८९३ चिकागो, यु.एस.ए.से. आये पत्रानुसार) "At any rate, will you not able to prepare a paper which will convey to the accidental mind, a clear account of the Jain Faith which you so honorably represent ? It will give us great pleasure and promote the ends of the parliament, if you are able to render this service." यह और इसके बादके पत्रोंके प्रत्युत्तरमें पूज्य गुरुदेवने, अपने प्रतिनिधि स्वरूप मि. वीरचंद गांधीको चिकागो भेजनेके लिए तैयार किया, एवं उनकी तथा चिकागोवालोंकी प्रार्थनासे प्रश्नोत्तर रूप यह ग्रन्थ श्री महाराज साहिबने तैयार किया, जो मैं अधुना अपने प्रेमी भाइयोंके लाभार्थ प्रगट करता हूँ। यही कारण है कि इसका नाम 'चिकागो प्रश्नोत्तर रखा गया'- 'उपोद्घात'-ले. श्री जसवंतराय जैनी। विषय निरूपण-जैनधर्मका कर्मविज्ञान-आत्मा-मोक्ष, ईश्वरका स्वरूप, मनुष्य और ईश्वर एवं मनुष्य और धर्मके सम्बन्ध, धर्म पुरुषार्थ-धर्म हेतु-धर्माराधनाके प्रकार, सर्वोच्च पद प्राप्ति और उसके साधन, विभिन्न धर्मशास्त्रावलोकनका महत्त्व-जैनधर्मके उपकार, पुनर्जन्म सिद्धिजगतकी विचित्रतायें मूर्तिपूजा (ईश्वरभक्ति)-उसकी आवश्यकता-स्वरूप, वर्तमानकालीन जैनों में न्यूनतायें और जैनधर्मकी सर्वांग सम्पूर्णता अंतर्गत पश्चात्ताप--(प्रायश्चित)से कर्मसे मुक्तिका स्वरूप-अवतारवादका विश्लेषण-धर्मका विविध विषयक शास्त्रों से संबंध-धर्मसे ही देशोन्नति रूढि परंपरा पर असर आदिका विवरण देते हुए धर्मके लक्षणमें रत्नत्रयी और तत्त्वत्रयीके स्वरूपालेखन, 'जगत्कर्ता ईश्वर' संबंधी जैनेतर दार्शनिकों की मान्यतायें दर्शाकर और उनका खंडन करते हुए सर्वशक्तिमान-सर्वव्यापी-निराकार-एक ही परमब्रह्म-पारमार्थिक सृष्टि सर्जक (187 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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