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सदृश जैनाभासों के विरुद्ध वचनकी-किसीके कहनेसे, देखने से या सराग दृष्टि आदि किसी भी कारणसे-श्रद्धा धारण की हुई हों उसे छोड़कर दृढ़ मनसे हज़ारों पूर्वाचार्यों द्वारा प्ररूपित और आचरणीय चार थुइयों को अंगीकार करने की प्रेरणा देते हैं। निष्कर्ष-इस तरह इस ग्रन्थके अध्ययनसे हम अनुभव कर सकते हैं कि आचार्य प्रवर श्रीने अपने अत्यन्त विशद साहित्यावगाहनके स्वाद रूप संदर्भके थोकके थोक उड़ेल कर एक अत्यन्त क्षुल्लक भासमान होनेवाली 'प्रतिक्रमणमें देव-देवीकी चतुर्थ थुईसे वंदना-स्तवना. करणीय है या नहीं?'-फिरभी जिन वचनसे विरुद्ध उत्सूत्र प्ररूपणाकी परंपरागत यथार्थता और सत्यताको किस अंदाज़से विश्लेषित करके अनेकों को उन्मार्गगामी होनेसे बचा लिया है। अंतमे (गणिवर्य श्री मणिविजयजी म.) परोपकारी गुरु म. श्री बुद्धिविजयजी आदिकी प्रशस्ति रूप श्लोक और जिनाज्ञा विरुद्ध, कुछ अशुद्ध प्ररूपणाके लिए क्षमापना याचना करते हुए इस ग्रन्थके प्रथम भागकी परिसमाप्ति की गई है। च.स्तु.नि. भाग-२:--ग्रन्थ परिचय-'चतुर्थ स्तुति निर्णय' ग्रन्थके प्रथम भागके सूत्र-शास्त्रप्रन्यादि के अनेक यथार्थ उद्धरणों के स्वरूपको पढ़कर और श्री आत्मारामजी म. द्वारा उपकारार्थ दी गई हितशिक्षा, विद्वेषमें परिणत होनेसे क्रोधित होकर-सं.१२५०में उत्पन्न और थोड़े ही समयमें विच्छिन्न मिथ्यामत-तीन थुई से चैत्यावंदनाका वि. १९२५में पुनरुद्धारक जिनाज्ञाभंजक, उत्कट कषायी, क्रोधी, मृषावादी, दंभी, ईर्ष्यालु, अन्यायी, साधुको कारणवश पत्र लेखनकी जिनाज्ञा होनेपर भी उसे दोष माननेवाला कदाग्रही, जावराके नवाबसे वार्तालापमें-दीन (मुस्लिम)
और जैन एक समान है-ऐसी प्ररूपणा करके जैनमत-अनंत तीर्थंकर-गणधरादिको मुस्लिम मत कर्ता सिद्ध करने वाले स्वच्छंदमति अभिनिवेशिक मिथ्यादृष्टि, उत्सूत्र प्ररूपकादि अनेक अवगुणालंकृत-श्री धनपाल विजयजी द्वारा गप्प स्वरूप मृषालेखोंसे 'देखने में मोटी और जिनाज्ञानुसार खोटी; अनेक प्ररूपणाओं से भरपूर, 'थोथी पोथी'में श्रीआत्मारामजी म.के साथ साथ खरतरगच्छीय, तपागच्छीय विजयदेवेन्द्रसूरि, सागरगच्छीय श्री रविसागरजी-श्री नेमसागरादि गच्छों के अनेक पूर्वीचार्यों के दिये गये कलंकको असिद्ध प्रमाणित करने हेतु श्रीमगनलाल दलपतराम आदि अनेक श्रावक एवं साधुओंकी तथा जैनधर्म प्रचारक सभा-भावनगरके सभासदों की विनतीसे परोपकारार्थ व कलंक निवारण रूप इस द्वितीय भागकी रचना, प्रथम भागकी रचना पश्चात् चार वर्ष बाद-राधनपुरके वर्षावासमें श्री आत्मारामजी म.सा.ने की; जिसमें राधनपुरके ज्ञानभंडारसे प्राप्त 'धर्मसंग्रह' पुस्तकाधारित “चार थुई और नव प्रकारे चैत्यवंदनाकी" प्ररूपणाको 'नूतन प्रक्षेपित होने के आक्षेपका प्रत्युत्तर देते हुए मिथ्याभाषी धनविजयजीको अनादरपूर्वक दंड देने का आग्रह करके श्री संघसे न्याय मांगा है। तत्पश्चात् पृ ३४में ऐसे प्ररूपकों के लिए हार्दिक अफसोस भी व्यक्त किया है। विषय निरुपण--उपरोक्त पूर्वाचार्यों के निंदक श्री धनविजयने, श्री रत्नविजयजी द्वारा की गई उत्सूत्र प्ररूपणाका--(प्रतिक्रमणके. आद्यंतमें जघन्य चैत्यवंदना करनी चाहिए; चतुर्थ स्तुतिसे
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