SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रोमरोमसे रत्नत्रयीमें सराबोर, दीपक या दिवाकरातीत प्रभावान, चंदन या चंद्रातीत शीतलः नरेन्द्रों और देवेन्द्रोंकी सर्व सिद्धि- समृद्धिको निस्तेज बनानेवाले मंगलमय श्रेष्ठतम शुद्धाचरणके स्वामी, युगानुरूप चिंतन चिरागका प्रकाश वाणीसे विस्तीर्णकर्ता, जनसमाजके प्रेरक जैन समाजकी चेतनाको संचरित करनेवाले उस युगपुरुषकी जीवन किताब ( व्यक्तित्व ) के प्रत्येक पृष्ठ पर प्रगतिके प्रतीक अंकित है। उन प्रत्येक अंकनको उजागर करनेका यथामति यथशक्य प्रयास करनेके हेतु है मात्र (१) स्वर्गारोहण शताब्दी वर्ष निमित्त उनके प्रति श्रद्धासुमन अर्पित करके स्वको धन्य एवं सर्वको धीमंत बनाना; (२) धीमानोंके पृष्टव्य उन प्रातिभ प्राज्ञकी प्रज्ञाके पुष्पोंकी अछूती सुवासको वितरित करके विश्वको वासित करना (३) शैक्षणिक, साहित्यिक, सामाजिक, धार्मिक, आचरणादि विभिन्न घटकोंके अनुरूप उनके साहित्यालोचन द्वारा अध्येताओंको परितोष प्रदान करना; (४) अद्यतन शिक्षाप्राप्त अज्ञानियोंके सर्वांगीण सद्द्बोध संप्रेषण द्वारा उन्हें संबुद्ध बनाना ( ५ ) महदंशसे साम्प्रत साधु समाजके तकरीबन दो तिहाई भागके साधु समुदायके सम्माननीय गुरुपद बिराजित उन गीतार्थ - गीर्वाण गुरु-राजकी शनैःशनैः लुप्त होती जा रही अक्षुण्ण स्मृतिको आधुनिक समाजके साम्प्रत श्रीजैनसंघके अंतःस्तलकी गहराईसे उजागर करते हुए अवनि अंबरके तेजस्वी तारककी ज्योतिको दीघ्र बनाना (६) उनके समान चारित्र निर्माणमें प्रयत्न-शीलोंकों पथ प्रदर्शित करना (७) उनके प्राचीन फिर भी नित्य नूतन प्रतिमानोंसे प्रेरणा ग्रहण करके अधुना उनकी सर्व विध सेवाओंको कुसुमांजलि अर्पित करना । इसमें कहाँ तक कामियाबी हांसिल हुई है उसका परिमाण तो समय ही निश्चित करेगा । उनके विशद वाङ्मयके प्रत्येक संघटकका प्रत्येक कृतिका विश्लेषण एक-एक स्वतंत्र ग्रन्थकी अपेक्षा रखता है फिर भी केवल तीन वर्षके अहर्निश अनवरत उल्लासमय अध्यवसाय और एकनिष्ठ लगनसे, सर्वग्राही दृष्टिबिंदुके ध्येयको यथोचित रूपमें मूल्यांकित करके शोधप्रबन्धकी सम्पन्नताका परितोष अनुभव कर रही हूँ। अंततोगत्वा इस शोध प्रबन्धके प्रमाणित सत्य निरूपणमें श्रमसाध्य - यथामति यत्न करते हुए प्राप्तव्य सर्व सौंदर्य-सुरभि देवगुरुकी कृपाके ही सुफल हैं; और छोटी-मोटी क्षतियोंके लिए मेरी अल्पज्ञ छद्मस्थता ही जिम्मेदार है । सुज्ञ परिखोंकी पर्यवेक्षिका दृष्टिके अनुरूप इसके निरीक्षणमें, अपनी छाद्मस्थिक अल्पज्ञता- ईषत्क्षमता- रंचमात्र दक्षताके सबब इस भगीरथ कार्यकी सम्पमतामें उन सर्वज्ञ- वीतरागके निर्मलवाणी निर्झरोंको यथायोग्य दिशा प्रदान करनेमें अन्यथा प्ररूपणा हुई हों या केवलीभाषित आगम विरुद्ध अल्पांश प्रारूपका भी दर्शन हों अथवा उन सद्धर्म संरक्षकके मंतव्यको यथातथ्य रूपमें निरूपित करनेमें असफलता झलकती हों उन सर्वके लिए सुज्ञानीसे त्रिविध त्रिविध क्षमा प्रार्थना - "मिच्छामि दुक्कडं हैं। उदारमना इसे क्षमस्व मानकर क्षमा प्रदान करें। इति शुभम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only -- www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy