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विश्वके सर्व जातिके सर्पोको नमस्कार; उन्नीसवें अध्यायमें सौत्रामणी यज्ञ वर्णनमें इन्द्र-नमुचि, अश्विनीकुमार-सरस्वती-सोमरस आदिकी अत्यन्त घृणास्पद प्ररूपणायें, देव-देवी-पितृओंकी शुद्धिरक्षा-भौतिक समृद्धि प्राप्ति-दुर्जनादि दुश्मनादिके नाशके लिए प्रार्थना, इन्द्र के शरीरके अंगोपांगके लिए विविध हास्यास्पद सामग्रीका वर्णन-बत्तीसवे अध्यायमें अनेक जड़ पदार्थों की बुद्धिके लिए बुद्धिहीन याचनायें; चालीसवें अध्यायमें वेद रचयिता ईश्वर ही कहते हैं- “पूर्वोक्तविध धीर पंडितोंसे संभूत-असंभूत उपासनाका फल जैसा सुना है वैसा कहते हैं।” अर्थात् वेद रचना स्वयं ईश्वर की नहीं, लेकीन पूर्वोक्त-धीर पंडितोंकी प्ररूपणानुसार शिष्य रूप बनकर ही वेद रचे होगें। तैत्तरीय ब्राह्मण में “ब्रह्माने सोम राजाको उत्पन्न करके तीन वेद उत्पन्न किये जिन्हें सोम राजा अपनी मुटठीमें छिपाता है। "-इतने बड़े वेद मुट्ठीमें कैसे छिपाये” यही आश्यर्यजनक है। निष्कर्ष-ऐसे प्रमाणोंसे वेद ईश्वर प्रणीत नहीं लेकिन अज्ञानी, मूर्ख, लालची, व्यसनी, दुराचारीके मानस साम्राज्यकी कल्पना रूप निष्पत्ति है। ऐसे अधिक प्रमाणों के लिए सायणाचार्यादिके ग्रन्थावलोकनकी प्रेरणा देते हुए और अंतमें श्री दयानंदजी और उनके मतावलम्बियों की अनघड़ गप्पोंको दर्शाकर इस स्तम्भकी पूर्णाहुति की गई हैं। एकादश स्तम्भ---इस स्तम्भमें जैनाचार्यों के बुद्धि वैभव रूप गायत्री मंत्रके अर्थकी प्ररूपणा की गई है। सर्व प्रथम ऋ.सं.अ-३, अ.४, वर्ग-१०, यजुर्वेद, शंकर भाष्य, तैत्तरेय आरण्यक-- अनु-२७ आदि के आधार पर गायत्री मंत्रका मूल रूप प्रस्तुत किया है -गायत्री मंत्र-“ॐ भूर्भुव: स्वस्तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियोयोनः प्रचोदयात्" जैन मतानुसार व्याख्यार्थ-ॐ-पंचपरमेष्ठि; भूर्भुवःस्वः=मर्त्य-स्वर्ग-पाताल-त्रिलोकको; तत् व्यापकर (अरिहंत- सिद्धमें स्पष्ट और आचार्यादिमें उसके प्रति श्रद्धा रूप व्याप मानने से-के वलज्ञानादि गुण द्वारा व्यापकर); सवितुःवरेण्य-सूर्यसे भी श्रेष्ठ (सूर्यका द्रव्यउद्योत देश व्यापक-पंच परमेष्ठिका भाव उद्योत त्रिलोक व्यापी);भर्गोदे = महेश्वर-ब्रहमा-विष्णु; वसि अधीमहि-स्त्रियों के वशीभूत; धियोयो नः प्रचोदयात् हे प्रेक्षावान् पुरुष प्रकृष्टाचार (मार्गानुसारी प्रवृत्तिके उदयसे) आचरण कर। भावार्थ यह होगा, “हे बुद्धिवान्, प्रेक्षावान् प्रकृ ष्टाचार पुरुष! देशव्यापक उद्योतकारी सूर्यसे और स्त्रियों के वशीभूत ईश्वर-ब्रह्मा, विष्णु, महेश-से श्रेष्ठ पंच परमेष्ठि-जो ज्ञानमय रूपसे पृथ्वी-पाताल-स्वर्ग-त्रिलोकमें व्याप्त हैं-उनकी ही आज्ञा रूप अमृत आस्वाद्य है-वे ही आराध्य, उपास्य, शरण्य, हैं। अतः उनकी ही आज्ञाकी आराधना कर।
इसी तरह नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, वैष्णव, सौगत, जैमिनीय, आदि मतानुसार विविध रूपोमें इस गायत्री मंत्रका अर्थ पेश करते हुए अंतमें सर्वदर्शन सम्मत सर्वसाधारण व्याख्याकी प्ररूपणा की गई है। भावार्थ-ॐकार स्थित पंच परमेष्ठिको प्रणाम पूर्वक, अथवा बीजमंत्र ॐकारके उच्चारणपूर्वक, हे सर्वत्र व्यापक ईश्वर-परमेश्वर! सूर्यसे भी श्रेष्ठ, देवत्रयके आराध्य! हमारी मनोगत (उपलक्षणसे वचन एवं कायगत) कामनाओंका नाश कर और चौर्यासी लक्ष योनि (संसार भ्रमण) से पार होने के लिए हे सर्वज्ञ, हमें प्रेरणा कर, अर्थात् इनके
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