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________________ देवों की उत्पत्ति, परमात्माका शरीर, ईश्वरकी सर्व पदार्थों में स्वाधीनता, प्रजापतिकी एकसे बहुत होनेकी ईच्छा, ब्रह्माकी एकही अक्षरसे सर्व कामनाओंका अनुभव करनेका विचार (ॐका दर्शन), सृष्टि रचना पूर्व उपादान कारणों की स्थिति, स्वयंभू परमात्माको ऋतुकाल आनेसे गर्भाधान, यज्ञके उच्छिष्ट अन्नभक्षणसे स्त्रीको गर्भाधान, ऋषियों की सर्वज्ञता, और उनका वेदज्ञान, ब्रह्माका पर्यालोचन रूप तप-वायु रूप भ्रमण-वराहरूप धारण, अन्य पृथ्वी से मिट्टी लाना, (जिससे अन्य लोक स्वतःसिद्ध), विटम्बना युक्त मैथुन सेवनसे सृष्टि रचनाकी कल्पना आदि अनेक कुयुक्तियों का, ऋग्वेद-यजुर्वेद-सामवेद-अथर्ववेद; उन वेदोकी वाजसनेयी आदि संहितायें, तैत्तरेय ब्रा.-एतरेय ब्रा.-गोपथ ब्रा.-शतपथादि ब्राह्मण ग्रन्थों, उपनिषद, बृहदारण्यक आदि आरण्यक, सायणाचार्य-महीधर-कुशलोदासी आदिके भाष्य, दयानंदजी आदि अनेक नूतन समीक्षकोंकी प्ररूपणा (एक ही ईश्वरके व्यतिरिक्त कोई सर्वज्ञ नहीं है- आदि) अनेक प्ररूपणाओंमें परस्पर अत्यन्त उपहासजनक विरोध दृष्टि गोचर होते हैं जिसे अनेको श्रुति-मंत्र-श्लोकादिके उद्धरण देकर स्पष्ट किया हैं। इसके अतिरिक्त परमात्माका ऋतुकाल और गर्भाधान, सृष्टि जितने बड़े कमलपत्र पर मिट्टी बिछाकर सूखाना और उस पर सृष्टि रचना, प्रजापतिकी, पुत्री-शतरूपासे, विषय सेवनकी ईच्छा और उसकी तृप्तिके लिए अनेक रूप धारण करना तथा इसीसे सृष्टि सर्जन होना; प्रजापतिका पर्यालोचन रूप तप करना, जड रूपके तीनों लोकके पदार्थोंको चैतन्यमय ब्रह्म द्वारा उत्पन्न करवाना-उस जड सृष्टिसे तप करवाना, वेदोच्चारके लिए असमर्थ, उनसे यज्ञ करवाना-आदि अनेक उक्तियाँ उपहासजनक हैं। निष्कर्ष-जो सर्वज्ञ, निर्विकारी, वीतराग, ज्योति स्वरूप, सच्चिदानंद स्वरूप, ईश्वर परमात्मा होते हैं, वे पूर्वोक्त हास्यास्पद कृत्य नहीं करते हैं, और न उनके वचन वेदवचन सदृश परस्पर व्याघाती या प्रमाणसे बाधित होते हैं, अतएव वेदादि शास्त्र सर्वज्ञ प्रणीत नहीं-केवल अज्ञानियोंके प्रलाप मात्र सिद्ध होते हैं। दसम स्तम्भ:-इस स्तम्भमें वेदकी ऋचाओंसे ही वेद ईश्वरोक्त या अपौरुषेय नहीं है यह सिद्ध करते हुए कुछ ऋचाओं के उद्धरण दिये हैं, जिन्हें अनेक ऋषियोंने अपने तपोबलसे प्राप्त करके सर्व प्रथम गायी और जिनका विभिन्न सूक्तोमें संकलन किया गया। ऐसे दश मंडलोके दृष्टा दस विभिन्न ऋषि थे। ऋग्वेदके तृतीय अध्यायमें विश्वामित्र द्वारा नदी, इंद्रादिकी ब्रह्म रूप मानकर स्वशिष्य रक्षाके लिए, शत्रुको शाप-शत्रुनाश और धन-संपत्ति-पशु-पुत्र-परिवारादिकी वृद्धि हेतु प्रार्थना की गई है; अध्याय चतुर्थमें विषयी-कामांध-कृश-दुःखी सप्तवधि ऋषि द्वारा कामेच्छा पूर्तिके लिए लज्जाजनक स्तुति-अश्विनौकुमारकी-की गई है; षष्ठम अध्यायमें लोक व्यवहार उल्लंधितअत्यन्त बिभत्स-हास्यास्पद-विषय-वासनामय अपाला ब्रह्मवादिनीकी इंद्रको प्रसन्न करने के लिए याचनामय-स्तुति; सप्तम अध्यायमें यम-यमीके संवादमें “प्रजापति ब्रह्माका अपरिमित सामर्थ्यके कारण अगम्यगमन मान्य" -आदि वासनामय मनोवृत्ति युक्त स्तुति; यजुर्वेदके तेरहवें अध्यायमें 167 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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