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निष्कर्ष-अति सुंदर प्रौढ़ आगमवचन प्रवक्ता, जगत्के एकांत हितकारी सूक्ष्म बुद्धि चक्षुसे अन्वेषण करके , बिना पक्षपात-शास्त्रोक्त युक्ति युक्त वचन ग्रहणका अपना निश्चय प्रगट करते हुए निःस्वार्थी, परमोपकारी, समस्त विश्वके पदार्थों को त्रिपदी रूपमें अनन्य सदृश ज्ञाता और अनन्य सदृश अचिन्त्य-अकलंक चारित्रवान् विशेषण विशिष्ट ; सर्व दोषोंका क्षय तथा अनंत ज्ञान-दर्शन-चारित्र-वीर्यादि अनंतगुण प्रगट किये हों-ऐसे देव नामसे ब्रह्मा, सुखदायी शंकर, विष्णु हों या रत्नत्रयी प्रदाता जिन हों-उन्हें अंतःकरणसे हार्दिक नमस्कार करने योग्य हैं।
इस प्रकार इस स्तोत्रसे 'देवत्व'का निर्णय करते हुए इस स्तम्भको संपूर्ण करके, परवर्तीपंचम स्तम्भमें स्याद्वादाधारित देवोंके 'क्रियात्मक निर्णयका विवेचन किया जा रहा है। पंचम स्तम्भः-इस स्तम्भमें सृष्टि सर्जन विषयक विवेचन किया गया है। स्याद्वादसे निश्चित किये गये तत्त्वज्ञानसे अज्ञात सर्ववादियों द्वारा लोक क्रियात्मक विषयक याने-ईश्वर, सृष्टि रचना, आत्मा, कर्म, द्रव्य-गुण-पर्याय-आदि विषयक अनेक विभिन्न मान्यतायें स्थापित की गई हैं। जिनमें वैशेषिक, नैयायिक, सांख्य, मीमांसक, बौद्ध, आदि आस्तिक एवं चार्वाकादि नास्तिक दर्शनोंके अंतर्गत कालवादी, ईश्वरवादी, ब्रह्मवादी, सांख्यवादी, क्षणिकवादी, पुरुषवादी, आत्मवादी, दैववादी, अक्षरवादी, स्वभाववादी, अंड़वादी, अहेतुवादी, परिणामवादी, नियतिवादी, भूतवादी, आदि अनेक वादियों के स्वमतानुसार शास्त्रों के उद्धरण देते हुए उन्हें पूर्व पक्ष रूप स्थापित किये गये हैं।
इस अवसर्पिणीकालमें अनंत नयात्मक, सर्व व्यापक, स्याद्वाद-स्वर्णरस कूपिकाके रस समान-सर्व जीवादि तत्त्वों की प्ररूपणा श्री ऋषभदेवजीने की, जिसे भरतचक्री द्वारा आर्यवेद रचनामें समाहित किया गया। उसका ही यत्किंचित् स्वरूप सांख्य; और उन्हींमें से अनार्य वेद-वेदांतादि शास्त्र रचे गये, और मत स्थापित हुए।
अब यहाँ श्री हरिभद्र सुरीश्वरजी द्वारा समुच्ययसे सर्व पक्षोंका किया गया खंडन इस प्रकार प्रस्तुत किया है -यथा (१) सत् और नित्य कारणसे जगत् उत्पत्ति नहीं हो सकती। (२) असत् कारण और कर्ता, कोई कार्य-सृष्टि सर्जनादि-करने में, (बिना अस्तित्वके कारण) असमर्थ रहेंगें। अतः प्रवाहापेक्षया यह सृष्टि अनादि स्वभाव सिद्ध है। मूर्त एवं अमूर्त द्रव्य न विनाशी है, न कभी अन्यत्वभाव प्राप्त। जगत् उत्पत्ति-विनाश, पर्यायरूप और ध्रुवता (शाश्वतता)द्रव्यरूपसे ही है। अतः जैसे ईश्वरको किसीने भी नहीं रचा, वैसे ही जगत-प्रपंच भी किसीका रचा नहीं, लेकिन अनादिकालीन मानना चाहिए। ईश्वर कृतकृत्य हैं, वीतराग-आप्त न्यायशील- . निष्पक्ष-दयालु-सर्व सामर्थ्यवान हैं, इसलिए जगत्कर्ता नहीं हो सकते। अगर सृष्टि रचें तो ये गुण असिद्ध हो जायेंगें; ऐसे अगुणी ईश्वरको कोई कल्याणकारी न मानेंगें। अतः सृष्टिकर्ता कोई नहीं हैं। यहाँ मुक्त जीवोंका स्वरूप वर्णित है। इसके साथ ही कर्मजनित प्रभुत्व, मेरु आदि पदार्थों का नित्यत्व और अकृतकत्व, आदिके वर्णनके साथ, लोक व्यवहारमें प्रवर्तमान कालचक्रकी तरह ज्योतिषचक्र और जीवचक्र भी नित्य-अनादि-शुभ-अशुभ कर्मों के अनुभाव
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