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________________ हैं " वीतराग के अतिरिक्त अन्य कोई सत्य धर्मका उपदेष्टा नहीं है, और अनेकान्त स्याद्वाद बिना पदार्थ स्वरूप कथनकर्ता कोई नय स्थिति भी नहीं है। "स्यात् "के बिना सहयोग, किसी भी - नित्यानित्यादि नयके कथन सिद्ध नहीं होते हैं। " हरि हर ब्रह्माके प्रति द्वेषके कारण नहीं किन्तु संपूर्ण निष्पक्ष आप्त (आगम) वचन, चारित्र, मूर्ति रूप तीन प्रकारकी कसौटीसे आपको शुद्ध जानकर ही, हे वर्धमान, आपके प्रति श्रद्धा दृढ़ करके आपका आश्रित बना हूँ। हे भगवन्, तेरी वाणीके चंद्रकिरण-तुल्य ज्ञान-रूप उज्ज्वल और तर्करूपसे पवित्र स्वरूप प्रकाशक रूपको जो अज्ञानियोंसे अज्ञात है हम पूजते हैं। अंतमें विशेष बोध रहित कोमल बुद्धि- इस स्तोत्रको श्रद्धासे और जो स्वभावसे स्वमताग्रही, परनिंदक निंदारूप अवगाहे; किन्तु हे जिनवर, यह स्तुतिमय स्तोत्र समर्थ बुद्धि, राग-द्वेष रहित, सतसत् के निर्णायक परीक्षककी धर्मचिताको धारण करने योग्य तत्त्व प्रकाशक है। -- " ऐसी प्ररूपणाके साथ इस स्तोत्रके बालावबोधको समाप्त करते हुए ग्रन्थकार श्री आत्मानंदजी म. सा. ने इस स्तम्भको भी समाप्त किया है। चतुर्थस्तम्भः -- इस स्तम्भमें श्री जिनेश्वरोंको प्रणाम करके श्री हरिभद्र सुरीश्वरजी म.सा. कृत 'नृतत्त्व निगम' अर्थात् 'लोकतत्त्वनिर्णय'का बालावबोध ग्रन्थकारने प्रस्तुत किया है, जिसके अंतर्गत भव्याभव्य या योग्यायोग्य श्रोताके लक्षण एवं परिचय विविध दृष्टान्तों द्वारा करवाकर उन्हें प्राप्त उपदेशका परिणाम, एक समान उपदेशका भिन्न भिन्न पात्रानुसार विभिन्न रूपमें परिणमन, युक्ति प्रमाणकी कसौटीका स्वरूप वर्णन प्ररूपित करते हुए बाल बुद्धि-स्वमत हठाग्रहीको आत्महित प्राप्तिका अभाव दर्शाया गया है। सुश्राव्य वचनों को सुनकर तुलनात्मक बुद्धिसे ग्राह्यका ग्रहण करके और कुज्ञान, कुश्रुति, कुदृष्टिका वर्जन सूचित किया गया है। प्रत्यक्ष देवके अभाव में इनके चारित्रादि, आप्त-आगमादि शास्त्र- प्रतिमादि दर्शन द्वारा निश्चित करनेमें निंदा नहीं है। पर एक दोष पीड़ित, भय पीडित, निर्दयी, अज्ञानी, विविध शस्त्रधारी, हिंसक, लज्जात्यागी, रागी, आदि अनेक दूषण युक्त है; और एक इन सबसे मुक्त, सर्व क्लेश रहित, हितमें सावधान, सर्व जीवों के शरण्यभूत, आदि अनेक गुण युक्त होनेपर तुलनात्मक दृष्टि से बुद्धिमान --- किसे आराध्य मानेंगे? सन्मार्ग से स्खलित पुरुष, समर्थ भी हों, दुःखी होता है। भगवान महावीर और अन्य बुद्धादि देव-दोनो में किसीके प्रति राग-द्वेष, पक्षपात, वैर-विरोध नहीं; न किसीने किसीका लिया दिया है; लेकिन एकांत रूपसे जगहितकारी, उपकारी, निर्मल, अनेकानेक गुणयुक्त सर्व दोषमुक्त भ. महावीर होनेसे वे आराध्य शरण्यभूत, सकल ज्ञेय पदार्थ प्रकाशक, श्रद्धा संयुक्त श्राव्य वाणीके स्वामी- सभीके आराध्य हो सकते हैं। श्री अर्हन् के यथार्थ स्वरूपके अज्ञात, स्वतः प्रवृत्तिरूप, परकी अनुवृत्तिरूप, दाक्षिण्यतासे, फल प्राप्ति के संशय युक्त अथवा बिना भक्तिभावसे भी आपको किया हुआ नमस्कार सुखादि संपत्ति-विभूति दायक होता है; तब आपके यथार्थ शासनके श्रद्धा-भक्तिसे आराधकों को कैसा उत्तम फल (मोक्ष फल?) मिलेगा? Jain Education International 163 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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