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संदर्भ दिया है, उसे उसके यथार्थ अर्थ स्पष्ट करते हुए उसका प्रतिषेध किया गया है। छत्तीसवें प्रश्नोत्तर में-पांच विभिन्न आश्रवसेवी पांच विभिन्न जीवोंको समान फल, सम्यक् दृष्टिको चार प्रकारकी भाषा बोलनेकी भगवंतकी आज्ञा, तीर्थंकरका झूठ बोलना आदि अनेक मिथ्या कथनों के प्रत्युत्तरमें आचारांग सूत्रकृतांग, भगवतीसूत्र, प्रज्ञापना आदिके संदर्भ प्रस्तुत करके उन वचनोंको असिद्ध किया है। सडतीसवें प्रश्नोत्तरमें-“दयामें ही धर्म है, भगवंतकी आज्ञा भी दया में ही है-हिंसा में नहीं". इसके प्रत्युत्तरमें त्रिकरण-त्रियोग शुद्ध दयापालक, फिरभी भगवंतकी आज्ञाका उत्थापक जमालि एवं अन्य अभव्य जीवों आदिकी दुर्गति; विहार करते समय नदी उतरना; डूबते हुऐ जीव को, साधु पानीमें तैरकर बचालें-ऐसी जिनाज्ञा; शिष्योंका लोच-बरसते मेघमेंभी, स्थंडिलादि कार्यमें हिंसा होने पर भी जिनाज्ञाका आधार; धर्मरुचि अनगारका जिनाज्ञा-आराधनासे सर्वार्थसिद्ध विमानमें जाना आदि अनेक संदर्भोसे जिनाज्ञा पालनका माहात्म्य दर्शाकर जिनाज्ञा पालनमें आलस्य और जिनाज्ञा विरुद्ध कार्यमें-उद्यम-दोनोंमें मिथ्यात्व सिद्ध करके उपरोक्त कथन 'दया में ही धर्म हे......हिंसामें नहीं मिथ्या सिद्ध किया है। अडतीसवें प्रश्नोत्तरमें-अनेक कुयुक्तियों को मिथ्या सिद्ध करने के लिए और जिन प्रतिमा पूजनमें अनुबं दया ही है; एवं पूजा शब्द दयावाचक ही है-इसे सिद्ध करने के लिए आवश्यक सूत्रके कूपके दृष्टान्तको उद्धृत करके और प्रश्न व्याकरणके संवर द्वारमें प्ररूपित दयाके पर्यायवाची ६० नामों में पूजाका उल्लेख और हिंसाके पर्यायवाची नामों में 'पूजा' नामोल्लेखका अनस्तित्व, हरिकेशी मुनि द्वारा वर्णित यज्ञकी स्पष्टता और महानिशीथके सूत्रपाठकी मिथ्या प्ररूपणाको विवेचित किया गया है। उनचालीसवें प्रश्नोत्तरमें- “प्रवचनके प्रत्यनीकको हणने में दोष नहीं"-ऐसी उत्सूत्र प्ररूपणाको अनेक सूत्राधारित अनेक दृष्टान्त देकर असिद्ध किया गया है। चालीसवें प्रश्नोत्तरमें-'संवेगी गुरुको महाव्रती और देव अव्रती मानते है'-इस कथनसे संवेगीको मिथ्या कलंक चढ़ानेका आक्षेप करते हुए गुरुविरहमें, गुरुकी स्थापना रूप अक्षकी स्थापनाको 'अनुयोग द्वार' आदि सूत्र साक्षीसे सिद्ध करते हुए अक्ष-स्थापनाकी आवश्यकताको, और श्रावक द्वारा अष्टप्रकारी द्रव्यपूजा एवं साधु द्वारा उसकी भावपूजाका अधिकार स्पष्ट किया गया है। एकतालीसवें प्रश्नोत्तरमें'जिन प्रतिमा जिनेश्वर समान नहीं होती' इस मिथ्या कथनका 'देवयं चेइयंपज्जुवासामि', राजप्रश्नीयसूत्रके सूर्याभदेवकी धूप-पूजा-'धूवं दाउणं जिणवराणं' आदि उद्धरणसे दोनों की तुल्यता सिद्ध की है। अभोगीको द्रव्यरूप भोग चढ़ाना-आदि एवं भाव-द्रव्यस्थापना तीर्थंकरों का स्वरूप और भेदोंको दर्शाकर उससे सम्बन्धित अनेक कुयुक्तियों का निवारण किया गया है। बयालीसवें प्रश्नोत्तर में “संविज्ञ मुनि गोशाला समान हैं "-इस कथनकी सिद्धिके लिए किये गए कुछ प्रलाप सदृश युक्तियोंका अनेक युक्तियुक्त तर्कोसे प्रत्युत्तर देते हुए ढूंढकों को ही गोशालामती
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