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________________ आगम सूत्रोंसे उद्धरित करके उपरोक्त एकान्तवादी मतका खंडन किया गया है। दृश्यमान आश्रवके कारणों में भी शुद्ध परिणामसे निर्जरा होती है, और दृश्यमान संवरके कारणों में भी अशुद्ध परिणामसे कर्मबंध होता है - इसे जमालि आदिके शुद्ध चारित्र पालनादि अनेक शास्त्रोक्त उदाहरण देकर निरासित किया गया है। अट्ठाइसवें प्रश्नोत्तरमें- जिनेश्वर भगवंतका द्रव्य निक्षेपा और उनतीसवें प्रश्नोत्तरमें- जिनेश्वर भगवंतके स्थापना निक्षेपा अवंदनीय होनेके आक्षेपके प्रत्युत्तर में लोगस्स सूत्र (चउविसत्था ) और दसवैकालिक सूत्राधार देकर दोनों निक्षेपा वंदनीय है-ऐसा सिद्ध किया है। तीसवें प्रश्नोत्तरमें- “मूर्तिपूजक, जैनधर्मके अपराधीको मारनेमें लाभ मानते है " इस प्ररूपणाको धर्मदासजी गणि कृत ग्रन्थसे और उत्तराध्ययन सूत्रके 'हरिकेशी' मुनिके उदाहरण द्वारा मिथ्या सिद्ध किया है। “गुरुओंको बाधाकारी जू. लिखादिका भी निवारण करना चाहिए” इस कथनको भी, उनसे विशेष अशाताका संभव न होनेसे अनावश्यक कहकर निरासित किया। दो साधुको जलानेवाले गोशालाके जिंदा रहनेको भाविभाव कहते हुए स्वयं के उपसर्ग-परिषह सहन करने और शासन पर आयी आपत्तियों का निवारण करनेकी प्रेरणा दी है। इकत्तीस प्रश्नोत्तर में महाविदेह क्षेत्रके बीस विहरमान जिनेश्वरके नामों में असमंजसताके कथनको, 'वे बीस नाम उनके मान्य सूत्रो में लिखे ही नहीं है' ऐसे आक्षेप सह यह कथन ही मिथ्या सिद्ध किया है। बत्तीसवें प्रश्नोत्तर में 'चैत्य' शब्द के साधु, तीर्थंकर, या ज्ञान अर्थ किया गया हैं, उसे मिथ्या सिद्ध किया है, क्योंकि किसी कोष, व्याकरणादि प्रन्थ, आगमादि शास्त्रमें कहीं इस शब्दका ऐसा अर्थ लिखा नहीं है। कोषादि में चैत्यका अर्थ जिनमंदिर, जिनप्रतिमा या चौतरे बंद वृक्षसिद्ध किया है। इसके अतिरिक्त 'चैत्य' का अर्थ साधु करें तो इसका स्त्रीलिंगवाची शब्द क्या होगा? अतः यह अर्थ असिद्ध है ऐसे भगवतीसूत्र, नंदीसूत्रादि अनेक सूत्रों के उदाहरण देकर प्रमाणित किया है। “आरम्भके (पापके) स्थानों में तो 'चैत्य' शब्दका अर्थ प्रतिमा भी होता है" - ऐसे अनेक कथनमें तो उनकी स्पष्ट द्वेषबुद्धि प्रकट होती है। तैंतीसवें प्रश्नोत्तर में सूत्रो में तप-संयम वैयावृत्यादिमें धर्मकरणी और उससे फल प्राप्ति मानी है, लेकिन जिन प्रतिमाके वंदन पूजनका फल नहीं दर्शाया इस कथनको आचारांग उत्तराध्ययन, ज्ञातासूत्र, राजप्रश्नीय आवश्यक सूत्रादिके उद्धरण देकर मिथ्या सिद्ध किया है। और जैसे भाव जिनको वंदना नमस्कार करनेके लिए वे स्वयं नहीं कहते न उसके वे भोगी है फिर भी भक्त अपनी भक्तिसे , Jain Education International - करता है, वैसे ही द्रव्य जिनपूजामें भी भक्ति ही कारणभूत माननी योग्य है। चौतीसवें प्रश्नोत्तरमै लोगरस सूत्रका 'कितिय, वंदिय महिया इनमें प्रथम दो को भावपूजा माना है लेकिन 'महिया' जो द्रव्य पूजावाची होने पर भी उसे भावपूजा रूप ठहराया है यह मिथ्या है। यहां पुष्पपूजामें होनेवाली स्वरूप हिंसाका भी प्रत्युत्तर दिया गया है। पैंतीसवें प्रश्नोत्तरमें-छजीव निकायके आरम्भ (विराधना) होनेके प्रसंगको लेकर 'आचारांग' सूत्रका (157) For Private & Personal Use Only 7 www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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